केवल तुम हो
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
लावण्य मयी श्यामल छवि है, लिखता एक गीत कोई कवि है।
यदि नहीं अप्सरा सी सुन्दर पर मेरे मन को प्रिय अति है।
तुम में जीवन का सत्य भरा जैसे पुराण है औ श्रुति है।
तुम देवालय की मूर्ति नहीं मेरे मन मन्दिर की सखि है।।
जैसे कोकिल मधुभाष करे विकसें कलियाँ मधु बास लिये।
है मृदुल मन्द मुस्कान तेरी छाया जैसे मधुमास प्रिये ।
नख सिख की शोभा का वर्णन लगता रति का पर्याय लिये।
तुम मृदुल भाषिनी कान्ति मयी तुम से सजते स्वर साज प्रिये ।।
मस्तक पर कुम कुम का टीका है उषा देवि ने माँग भरी।
अरुiणम अधरों पर खेल रही रवि किरण देख सुकुमार बड़ी।
मैं एक चित्त निरखा करता यह तेरा अनुपम रूप सखी।
मैं ठगा ठगा सा मूर्ति मान मैं नहीं झपकता पलक कभी ।।
तुम सुन्दर से सुन्दरतम हो तुम साक्ष्य खड़ी न कोई भ्रम हो।
मेरे अतीत के पृष्ठों में केवल तुम हो तुम ही तुम हो।
यह अन्तराल न मिटा सका कितना प्रयास करके देखा।
मेरे उर पुर के मन्दिर में एक देवि मूर्ति तुम ही तुम हो।।
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