तुषार
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
तुषार ही तुषार है
बयार ही बयार है
खड़े हैं वृक्ष देव से
उन्हीं को पुष्प हार है।
मनोहरा बनी धरा
हर हृदय है रस भरा
मनभावनी सुगंध ले
महकता देवदार है।
सरित सलिल ने ओढ़ ली
हिमानी पट की चादरें
ठिठुर न जाये जंतु जल
अद्भुत प्रभु का प्यार है।
विधि ने प्रकृति को
सजाया बार बार है
दिव्य का अनोखा रूप
कितना साकार है।
धवल धरा लुभावनी
का उत्तरी दुलार है
प्रतीत हो रहा मुझे
कि स्वप्न संसार है।
निहारो जिस ओर भी
रजत का ही आकार है
रवि प्रकाश कर रहा
कैसा ये चमत्कार है।
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