प्रेम का प्रतीक
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
प्रेम का प्रतीक है, जीवन का गीत है।
यमुना तट पर रक्खी स्मृति की नींव है॥
प्रेम में पगे से, निरखते हैं सब ठगे से।
शाहजहां की रानी मुम्ताज़ की प्रीत है॥
पूर्णिमा की चंद्रिका में, अम्बर अवनी से
धवल रूप धारण कर, झरती मधु कीर्ति है॥
यमुना जल धन्य, अमर प्रेम अवलोकन कर।
जिसको न मिटा सके, घाम अथवा शीत है॥
सदियों से गाता है, राग अनुराग का जो।
भेद भाव जिसमें न, ऐसा सबका ये मीत है॥
शाहजहां ने दिया है, पूर्ण प्रेम का परिचय।
अतिशय था प्रेम जिसे, कहता सब अतीत है॥
आज भी शाहजहां, मुम्ताज़ है मुम्ताज़महल।
निरख जिसे मन गाता, मधुरिम संगीत है॥
इसकी संसार में, कहीं भी कोई उपमा नहीं।
इसको दुनियाँ में, कोई नहीं सका जीत है॥
प्रेम सरिता बहती है, इसको निरखते ही।
इतनी लुभावनी लगती, ये धवल मूर्ति है॥
संग मरमर का बना हिय, कोमल अति है।
हिय में स्पन्दन कर, गढ़ता मधु गीत है॥
श्रद्धा से करता नमन इसको आकाश भी।
मेंघ दो बूँद हर वर्ष करते अर्पित हैं॥
तू अद्वितीय अजूबा, शिल्पी का त्याग है।
तू प्रेम धाम, तू प्रेमियों का एक तीर्थ है।
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