कौन हो तुम
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
हे मौन साधक कौन हो तुम व्योम में जो लीन ।
कल्पना से भी परे हो इतने हो असीम ।।
झंझा आये तड़ित चमके तुम अडिग रहते सदा
पर सभी के प्रेम में रहते हो तल्लीन ।।
मन सदा सोचता कौन हो तुम कौन हो ।
तन वंशी बाजती जैसे बिन स्वर बोली हो बीन ।।
हिय गाता है गीत तुम्हारा हर बन्धन को भूल ।
सत्य कहूँ तो सबको लगता जैसे कड़वा हो नीम ।।
मादक मन मन मन्थन करता हर पल खोजे स्त्रोत ।
कहाँ आदि है कहाँ अन्त तुम कितने हो प्राचीन ।।
सोच सोच कर रह जाता हूँ एक पल मिले न चैन ।
कैसे खोजूँ इस रहस्य को कोई तो इतना हो प्रवीन ।।
मन ही गाता मन ही सुनता गीतों की धुन ।
पंच तत्व का पुतला कहता तुम स्वर तुम हो बीन ।
मेरी काया तेरी छाया का ही एक प्रतिफल है ।
तड़प रहा मन ओ निर्मोही क्यूँ न सके हो चीन्ह ।
जीवन जगत रचाने वाले सबको हृदय लगाने वाले ।
कहलाते हो दीन बन्धु क्यों मुझको करते हो दीन ।
कितने ही ब्रह्मांड रचाये कितने शशि और सूर्य बनाये ।
क्यों मानव को पीड़ा देकर सुख उसका लेते हो छीन ।।
शरणागत की जिज्ञासा खोज रही इसका निदान कुछ।
पता नही इस योग्य भी हूँ पर मुझको न कहो प्रवीन ।
मेरे इस चँचल मन को प्रभु शान्ति भाव दे देना
ज्ञान मिले उसको बाँटूँ जिससे विमुख न कोई हो दीन ।।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अंतर पीड़ा
- अनुल्लिखित
- अभिवादन
- अर्चना के पुष्प
- आस्था
- एक चिंगारी
- एक दीपक
- कठिन विदा
- कदाचित
- काल का विकराल रूप
- कुहासा
- केवल तुम हो
- कौन हो तुम
- चातक सा मन
- छवि
- जो चाहिये
- ज्योति
- तुषार
- तेरा नाम
- दिव्य मूर्ति
- नव वर्ष (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- नवल वर्ष
- नवल सृजन
- पावन नाम
- पिता (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- पुष्प
- प्रलय का तांडव
- प्रवासी
- प्रेम का प्रतीक
- भाग्य चक्र
- मन की बात
- महारानी दमयन्ती महाकाव्य के लोकापर्ण पर बधाई
- याद आई पिय न आये
- लकीर
- लगन
- लेखनी में आज
- वह सावन
- विजय ध्वज
- वीणा धारिणी
- शरद ऋतु (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- श्रद्धा की मूर्ति
- स्मृति मरीचि
- स्वतन्त्रता
- स्वप्न का संसार
- हास्य
- हिन्दी
- होके अपना कोई क्यूँ छूट जाता है
- होली आई
- होली में ठिठोली
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं