वह सावन
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
ऐसी ही तो घटा घिरी थी, ऐसा ही था देखो सावन।
नैनों में चंचल चितवन थी पर, मन कितना देखो पावन॥
भानु रश्मि वारिद में चमकी चमका तेरा रूप सुहावन।
बैठ झरोखे देख रहा मैं मन को लगता देखो भावन॥
फिर फुहार स्मृति ले आई कोकिल ने है कूक लगाई।
आम्र झुरमुटों में वो आना हँसी खुशी था देखो आँगन॥
बीत गये हैं दिवस आज वे रीत गये हैं सपन सुहावन।
पर स्मृति में आकर अब भी कोई पकड़े देखो दामन॥
गीत हमारे रंग तुम्हारे, जीवन में भरते ना कभी भी।
यदि प्रिय सी प्रीत न होती मिट जाते सब देखो साधन॥
यदि विछोह में मिलन आस ना कैसे बीते देखो जीवन
यदि घन उमड़ घुमड़ न आवें तो मयूर न देखो कानन॥
प्रकृति सदा मानव के संग ही साथ साथ चलती रहती है।
पर मानव के स्वार्थ भाव से उसका डग मग देखो आसन॥
प्रेम भाव से जीवन यापन में ही तो सुख सार छिपा है।
प्रेम तत्त्व वर्षा में निहित है हरियाली का देखो सावन॥
कहाँ गगन है कहाँ पवन है कहाँ धरा औ" कहाँ भवन है।
अपना अपना सब हैं कहते लहर पकड़ता देखो पगलामन॥
मधुर तुम्हारी स्मृति ने ही लिख डाले हैं पृष्ठ अनेकों।
घटा घिरी गीत बन गया सुमुखि तुम्हें ही देखो आँखन॥
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