श्रद्धा की मूर्ति
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
तुम श्रद्धा की मूर्ति, सहोधर हो धीरज की
तुम मेरा विश्वास मनोहर हो नीरज सी।
तुम हिय का स्पन्दन शान्ति भली नीरव सी,
मन मन्दिर में लगती हो मुझको प्रिय तीरथ सी।
त्याग, तपस्या, ममता का संगम है तेरा जीवन,
प्रिया तुम्हारे संग ये जीवन धन्य तेरी कीरत ही।
सुख दुख तो जीवन के हैं अद्भुत खेल निराले,
धैर्य धर्म से कट जाते हैं बात बहुत सीरत की।
जन्म जन्म में साथ मिलें है अभिलाषा मन की,
तुम तो प्राण प्राण में बस कर परिभाषा जीवन की।
तुम हो वह सुगन्ध जिससे मन विभोर हो जाता है,
कैसे वर्णन करूँ कि तुम हो निधि विधि मम हीरक की।
तुम चेतन हो तुम ही गति हो भक्ति भाव से पूरी,
तुम देती हो इस जीवन को सत्य साधना व्रत की।
तुम से प्रेरित है यह जीवन गायन में पूजन में,
तुम मेरा आभास तुम्हीं हो ज्योति प्रेम दीपक की।
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