दीवारों में क़ैद दर्द
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 May 2020
यही मेरा टूटा-फूटा मकान है
मेरा नाम प्रेमपाल है
मेरे बच्चे परेशान हैं
यह मेरे चार छोटे-छोटे बच्चे हैं
जो भूख से निढाल हैं।
बीमारियों से ज़्यादा हमें
भूख मार देती है साहब!
क़यामत से ज़्यादा
मेरे बच्चों की नम आँखें
मार देती हैं साहब!
मैं रहने वाला हूँ भारत का
मैं एक ही पीड़ा नहीं
कई दर्द हूँ प्रेमपालों का।
शासन क्या है मुझे नहीं पता
हुकूमत क्या है मुझे नहीं पता
न खाने को अन्न है
न पेट के लिए रोज़गार
भूख की पीड़ा क्या होती है
मुझे तो सिर्फ़ यही पता।
नही चाहिए हमें सियासत शोहरत
हमें उम्मीद बस दो रोटी की
कल की हालत बची हुई है
आज ज़रूरत है बस खाने की।
न पास मेरे पैसा है
यह कुदरत का खेल कैसा है
बस उम्मीद हमें तड़पाती है
बच्चों की भूखी सूरत हमें सताती है।
निकल जाता हूँ कड़ी धूप में
ख़ाली पेट ज़िंदगी की क़ीमत लेने
अफ़सरानों की बेमुरव्वत
और भी भारी हो जाती साहब!
ख़ाली पेट, पीठ पर लाठी के निशान
क्या करूँ साहब!
मैं हूँ बहुत परेशान
बच्चे भूखे हैं, छटपटा जाता है प्राण।
भूख से मर जाएँ साहब!
या भूख को मारने के लिए मर जाएँ
अपनी विवशता देख-देखकर
हम कितने बार डर जाएँ।
आँसू छलक पड़ते हैं
जब बच्चे रो पड़ते हैं साहब!
अब तो जीवन के विरुद्ध
कुछ करना होगा
बदनाम न हो मेरा समाज
चुपचाप मौत की नींद सोना होगा।
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