जीवन इधर भी है
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Dec 2019
काश! मैं तुम्हें रोक पाता
उस घड़ी जब तुमने,
मेरे दुःखों को
एक नाम देकर पुकारा था।
काश! मैं तुम्हें ढूँढ़ पाता
उस घड़ी जब तुम,
मेरे सवालों का जवाब
कुछ आँसुओं में देकर
कहीं गुम हो गये थे।
काश! मैं तुम्हें नींद में छुपा लेता,
उस घड़ी जब तुमने,
मेरी आँखों में आँखें डालकर
मेरे बेचैनी को शान्त किया था।
काश! मैं तुम्हें बाँध पाता
उस घड़ी अपने असीमित
सपनों के बंधन से,
जब तुमने हल्की सी
साँसों में कहा था,
मुझे तुमसे?
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अनसुलझे
- अनुभव
- अन्तहीन
- अपनी-अपनी जगह
- अब लौट जाना
- आँखों में शाम
- आईना साफ़ है
- आज की बात
- उदास आईना
- एक छोटा सा कारवां
- एक तरफ़ा सच
- एक तस्वीर
- एक पुत्र का विलाप
- कल की शाम
- काँच के शब्द
- काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता
- कुछ छूट रहा है
- गेहूँ और मैं
- चौबीस घंटे में
- छोटा सा सच
- जलजले
- जीवन इधर भी है
- जीवन बड़ा रचनाकार है
- टूटी हुई डोर
- ठहराव
- तुम्हारा एहसान
- दर्द की टकराहट
- दीवार
- दीवारों में क़ैद दर्द
- धरती के लिए
- धारा न० 302
- पत्नी की मृत्यु के बाद
- पीड़ा रे पीड़ा
- फोबिया
- बेचैन आवाज़
- भूख और जज़्बा
- मनुष्यत्व
- मशाल
- मुक्त
- मुक्ति
- मेरा गुनाह
- मैं अख़बार हूँ!
- मैं डरता हूँ
- मैं दोषी कब था
- मैं दोषी हूँ?
- रास्ते
- रिश्ता
- वह चाँद आने वाला है
- विवशता
- शब्द और राजनीति
- शब्दों का आईना
- संवेदना
- सच चबाकर कहता हूँ
- सच बनाम वह आदमी
- सच भी कभी झूठ था
- सफ़र (राहुलदेव गौतम)
- हादसे अभी ज़िन्दा हैं
- ख़ामोश हसरतें
- ख़्यालों का समन्दर
- ज़ंजीर से बाहर
- ज़िन्दा रहूँगा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}