मैं अख़बार हूँ!
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Feb 2020
मैं अख़बार हूँ।
मुझे तरह-तरह के लोग
मुझे तरह-तरह से पढ़ते हैं।
कोई मुँह बिचका लेता है,
कोई मुँह उठा लेता है।
कोई चुप होकर भौहें तान लेता है,
कोई अनेक शब्दों में बड़बड़ा लेता है।
क्योंकि मैं अख़बार हूँ।
हर कोई अपने हिसाब से थाम लेता है।
अख़बार बन जाना अपने आप में सभ्यता है।
कि यहाँ तरह-तरह के लोग है,
क़िस्म-क़िस्म के विचार
अजीबो-अजीब वाद-विवाद
और नस्ल-नस्ल के झगड़े।
कुछ उटपटांग जीवन शैली
कुछ अल्हड़ रीति-रिवाज़
कुछ बेपरवाह मान्यताएँ-धारणाएँ।
कुछ ख़ौफ़नाक वारदातें
कुछ भेद, कुछ अभेद
कुछ हद, कुछ बेहद
कुछ शोहरतें,
कुछ गुमनामी
कहीं भूख,कहीं सदमे
कहीं रंग, कहीं बिरंगे
कहीं संस्कृति, कहीं नस्लवाद
कहीं सौम्य, कहीं उग्रवाद
कहीं बहुत कुछ,
कहीं कुछ भी नहीं।
कहीं सियासत, कहीं बग़ावत
कहीं प्रेम, कहीं धोखा
कहीं उम्मीद, कहीं टूटना।
कहीं सोना, कहीं जागना
कहीं हँसना, कहीं रोना
कहीं शब्द, कहीं निःशब्द।
कहीं शोर, कहीं ख़ामोशी
कहीं ख़ून, कहीं लाश
कहीं त्याग, कहीं लूट
कहीं सवेरा, कहीं अँधेरा।
और इन्हीं से मिलकर बनता हूँ,
मैं हर रोज़ एक नया अख़बार।
एक नहीं, दो नहीं,
सत्रह-अट्ठरह पृष्ठों की
सत्रह-अट्ठरह जीवन जीता हूँ।
जितनी उँगुलियाँ हैं,
उतने में फँस जाता हूँ
और दो अँगूठों में दब जाता हूँ।
मुझ जैसे अख़बार की,
एक विशेषता रही है दोस्तो!
कितनी बार पढ़ा जाता हूँ,
कितनी बार मोड़ा और दोहरा जाता हूँ।
मेरी एक दिन की ज़िन्दगी,
समाप्त हो जाती है जब,
किसी आलमारी की रद्दी कोने में,
मैं बेपरवाह फेंक दिया जाता हूँ।
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