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मुक्ति

मैं नहीं डूबना चाहता हूँ,
इच्छाओं के दरिया में,
क्योंकि कश्तियों का फ़ैसला कुछ और था।
ज़िम्मेदारी वो नाव थी,
जो मुझे बार-बार,
बचा लेती है इच्छाओं की लहरों से।
किनारा भी तो नहीं था,
मेरे पक्ष में।
जिसपे मैंने हाथ रखकर टोह ली थी।
इसलिए निराधार होकर,
मैं कैसे फिसलता जाऊँ।
प्रतिक्षण लहरों ने घिसा था,
निःशब्द खड़े मेरे कर्त्तव्य चट्टानों को।
एक-एक टुकड़ा,
छिल-छिल कर समा रहा है,
इच्छाओं की लहरों में।
बहुत तकलीफ़ देती है,
इच्छाओं की चोट।
कर्त्तव्य की दीवारों में,
कब तक क़ैद करें इसे।
इस अलगत्व ने,
मुझे बाँट दिया है दो हिस्सो में।
कर्त्तव्य तो शांत है अपने मज़बूत इरादों से।
लेकिन इच्छाएँ शोर मचाती हैं,
मैं कौन हूँ क्यों हूँ।
उसकी लहरें आज भी आवाज़ दे रही हैं,
आओ मेरे साथ वापस चलो।
अस्तित्व विहीन होकर,
बन्धन रहित मुक्त हो जाओ।

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