नोक-झोंक
कथा साहित्य | लघुकथा ममता मालवीय 'अनामिका'15 Feb 2021
वैसे मुझे लड़ाइयाँ पसन्द नहीं, मगर जब बात माँ-पापा की आती है; तब मुझे बड़ा आनंद आता है। क्योंकि उनकी लड़ाई में लड़ाई कम और प्रेम ज़्यादा झलकता है।
तो लड़ाई के इस उत्सव में माँ गिराती है, अपने ग़ुस्से के "परमाणु बम" और पापा बनते हैं, "बलि का बकरा"। और मैं एक मूक दर्शक, जिसका किसी भी पक्ष में बोलना दण्डनीय अपराध समझा जाता है। तो ऐसी परिस्थिति में, मैं पतली गली पकड़ कर निकल लेना ज़्यादा उचित समझती हूँ।
पापा कोशिश तो बहुत करते हैं मनाने की, मगर चार उनका पसंदीदा अंक है। इसके बाद वो ख़ुद हाथ खड़े कर देते हैं।
क्योंकि शादी के 38 साल में उन्हें इतना अनुभव तो हो ही गया है, कि "औरतें मनाने से नहीं मानतीं बल्कि उल्टा उनसे नाराज़ हो जाओ, ख़ुद मान जाती हैं"।
तो इस उत्सव के बाद घर में छा जाती है, दो दिन की पूर्ण रूपेण शांति, जिसको बोलते हैं "शांति उत्सव"। इसमें दोनों खिलाड़ी एक दूसरे से नाराज़ हैं और सम्पर्क का एक मात्र साधन होती हूँ मैं।
जिसे इधर का संदेश उधर और उधर का संदेश इधर करना होता है।
मगर इस नोक-झोंक में माँ कभी पापा की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ नहीं करती। हाँ पापा को नज़रअंदाज़ करने का नाटक बख़ूबी अच्छा कर लेती है।
और दूसरी तरफ़ पापा माताश्री के ग़ुस्से का असर कहीं उनके स्वास्थ्य पर न पड़ जाए, इसी चिंता में माताश्री की परिक्रमा उपग्रह की भाँति करते रहते हैं।
अनन्त दो दिन के शांति उत्सव के बाद दोनों पक्ष अपने हाथ खड़े कर देते हैं।और बिना ना-नुकुर किए एक हल्की सी मुस्कान के साथ मेरी मौजूदगी में समझौता हो जाता है।
"प्रेम में हुई नोक-झोंक, एक स्त्री के द्वारा किए गए व्रत के समान पवित्र है। जिस प्रकार व्रतों के माध्यम से एक स्त्री अपने जीवन-साथी का साथ दीर्घकाल के लिए ईश्वर से माँग लेती है, उसी प्रकार प्रेम में हुई नोक-झोंक प्रेम की आयु-सीमा और गहराई दोनों बढ़ा देने का कार्य करती है"।
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