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शब्द और राजनीति

जीवन की अप्रत्याशित
संवेदनाएँ
केमिकल के अणुसुत्र की तरह
उलझी, वक्र होती हैं
जीवन को एक तथ्य देती हैं।


शब्दों की तासीर पर
हम किसी अर्थ को बढ़ावा नहीं देंगे
आग की लपट
शब्द के तीक्ष्ण रूप
भयंकर होकर
एक वर्चस्व
एक सोच
एक हुकूमत
गल कर गिरने लगते हैं
जब संवेदनाएँ टूटती हैं।


एक आदमी को
उसके स्वाभिमान के
टूटने के बराबर होता है
हाहाकार
कोलाहल
बहुत छोटी चीज़ है,
शब्दों के साँचे में।


ये मात्र जन समूह के दर्द की
ठोस छटपटाहट नहीं,
बल्कि एक-एक आदमी के
पीड़ा का बिखराव है।


समाज आज भी
मुखौटेपन को
तहज़ीब देता है।


दर्द के पड़ोसी जश्न मनाते हैं
आँसुओं की बगल में
एक बेवज़ह हँसी भी है
तक़रीरों के हमदर्द
खोखलेपन से हाथ मिलाते हैं


शहादत के गलियारों में
दलीलों के सरपंच बैठे हैं
भूख की चारदीवारी के
उस पार,
दावतों के जुलूस
निकाले जाते हैं


शहरों के बीचों-बीच
भागम-भाग का
एक अपाहिज सफ़र है
गाँवों के खेत-खलिहानों में
सर्वदाता की मृत्यु
और उसी मिट्टी से
पनपती एक दोगली राजनीति...।

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