धूल भरी परत
काव्य साहित्य | कविता वीणा विज ’उदित’24 Feb 2008
चाँदी के रुपहले तार सी
बिखरी यादों के दरवाजे
आहिस्ता सी दस्तक से खुले
परत दर परत खुलते चले गए
सामने थीं अनगिनत दीवारें
कुछ कही कुछ अनकही बातें
अजीब लीपियाँ थीं खुदी हुईं
बर्फ़ानी ठण्डक लिए जमी हुई
दीवारें दर दीवारें लम्बे गलियारे
यादों का बोझ उठाए लम्बे खम्बे
धुँधली आकृतियाँ थी छत में
धूल भरी परत में छिपे थे चेहरे
यादों की दीवारों में दरारें पड़ी थीं
दरारों में सदियाँ सोई पड़ी थीं
भूली दास्तानें अब कहाँ याद थीं
यादों की कड़ियाँ भी टूटी पड़ी थीं
ठहर जाती है कश्मोकशे ज़िंदगी
जब यादें दिल पर देती हैं दस्तक
सुझाई नहीं देती कोई इबादत
हटाने से हटती नहीं धूल भरी परत।
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