गूँज
काव्य साहित्य | कविता वीणा विज ’उदित’3 May 2012
जब भी तुझे आवाज, लगाई
उसकी गूँज पलटकर वापिस आई
देस बेगाना, लोग बेगाने
अपना था तूँ, बेगाना क्यों हुआ?
जिस्म में लहू का हर क़तरा साँझा
रंग तो लाल ही था, सफेद क्यों हुआ?
ढेरों ख़्ात डाक में आते वहाँ से
तेरी ही कलम की स्याही सूख गई?
साँझ-सवेरे लोग आते हैं वतन
माटी जले! तेरा जहाज ही उड़ता नहीं?
कागा बोले औरों की मुँडेर
अपनी तो मुँडेर भी टूट गई।
पेटी भर कर पैसा लाऊँगा
टूटी छत घर की चिनवाऊँगा।
अंधड़ - बारिश ने खूब तकी राह तेरी
आख़िर, गिरा ही दी -- !
टूटी दीवारों से घिरे हुए हैं
घर के नाम को सँभाले हुए हैं
तेरा चाँदी का छुनछुना
तेरी धरोहर अब सँभलेगी न।
ढलती साँसों की रवानगी ठहरी
अभी है, न मालूम कब टूट गई।
चार कंधों में इक कंधा तेरा होगा
इतना विश्वास भी अब डोल गया।
राह तकेंगी आँखें अन्तिम पल
तड़पेगी ममता गले आकर मिल।
मेरी आवाज, की गूँज तब
अन्तरिक्ष से आकर तुझसे टकराएगी।
तूँ तड़पकर देगा आवाज़ मुझे
तेरी गूँज पलटकर तुझे रुलाएगी।
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