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हिंदी राष्ट्र भाषा या विश्व भाषा: वर्चस्व का संघर्ष

समीक्ष्य कृति: हिंदी राष्ट्र भाषा से विश्व भाषा 
 लेखिका: डॉ.सुरभि दत्त 
प्रकाशक: विकास प्रकाशन, 311 की, विश्व बैंक बर्रा, कानपुर 
मूल्य: 450/ मात्र 
मोबाइल: 9415154156, 9540057852,
फोन: 0512-2543549
प्रथम संस्करण: 2019 
समीक्षक: डॉ. पद्मावती 
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग,आसन महाविद्यालय, चेन्नई

हिंदी साहित्य जगत में डॉ. सुरभि एक ऐसा नाम है जिनकी साहित्यिक रचनात्मकता उनके गहन अध्ययन और व्यवस्थित शोध चिंतन का परिणाम है। वे एक ऐसी लेखिका हैं जिनकी क़लम मानवाधिकार और जन कल्याणकारी समाज सापेक्ष प्रजातंत्र की पैरवी ही नहीं करती बल्कि एक स्वस्थ और सफल सामाजिक संरचना की स्थापना में व्यक्ति के दायित्व बोध को उतना ही महत्वपूर्ण अस्त्र मानती है। इनका साहित्य समाज, संस्कृति, राजनीति, व्यवस्था के अन्योन्याश्रित संबंधों को वृहत् तर फलक पर चित्रित करता है। 

विश्व का कोई भी देश ऐसा नहीं है जिसकी राष्ट्रभाषा न हो। भाषा ही राष्ट्र की जान है, राष्ट्रीयता की पहचान है। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा वही भाषा बन सकती है जिसका प्रचार पूरे देश में हो और जो जन-जन की प्रिय भाषा हो। इस मान्यता के आधार पर अगर भारत वर्ष में किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का गौरव दिया जा सकता है तो वह निःसंदेह रूप से हिंदी भाषा ही है। 

प्रस्तुत आलोच्य कृति ‘हिंदी राष्ट्रभाषा से विश्व भाषा’ में लेखिका ने हिंदी भाषा के उद्भव से लेकर उसकी स्थिति, गति, दिशा और दशा को दर्शाते हुए राजभाषा के गलियारे से होती हुई हिंदी की विश्व फलक तक पहुँचने की विजय यात्रा का ब्योरेवार वर्णन प्रमाणिक तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। गहन अध्ययन से प्राप्त तथ्यों के संचयन और उनके तार्किक प्रस्तुतिकरण में उनकी संश्लेषणात्मक पद्धति निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। विषय वस्तु की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट सटीक और पारदर्शी भाषा तथा विवेचनात्मक शैली के प्रयोग ने निष्पक्ष रूप से लेखिका के भाव को पाठक तक संप्रेषित करने में सफलता हासिल की है। बोधगम्यता की दृष्टि से विषय वस्तु को दस अध्यायों में विभक्त किया गया है जो लेखिका के शब्दों में हिंदी के वर्चस्व की संघर्षमय कहानी का इतिहास प्रस्तुत करते हैं। संघर्ष गाथा इसलिए क्योंकि हिंदी समृद्ध भाषा, संपर्क भाषा, राजभाषा, और विश्व भाषा तो बन गई लेकिन राष्ट्रभाषा बनने का सपना अभी भी अपूर्ण ही बना रहा।

पुस्तक की भूमिका में ही हिंदी की चिंतनीय और शोचनीय स्थिति को दर्शाती हुई ये पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं, ‘वह भाषा जिसने राष्ट्र की सीमाओं को लाँघ कर विश्व में लोकप्रियता के शिखर को छुआ है, वह हीरक जयंती की ओर बढ़ रहे 71 वर्षीय भारत में संविधान के पन्नों में राजभाषा से ऊपर उठकर राष्ट्रभाषा के रूप में अपनी पहचान ढूँढ़ रही है’। ‘हिंदी को उसका संवैधानिक दर्जा कब दिया जाएगा?’ यह प्रश्न आद्यान्त विषय वस्तु से जुड़ कर पाठक की चेतना को उद्वेलित करता है। 

विषय का आरंभ वैदिक काल में हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति के सूत्रों की खोज से लेकर उसके शब्दकोश की भारतीय और विदेशी परिभाषाएँ, हिंदी के साहित्यिक रूप का विकास, तत्पश्चात, स्वतंत्रता पूर्व परिदृश्य में राष्ट्र के महान नायकों का हिंदी की सार्वदेशिकता को पहचान कर उसे देश की सांस्कृतिक एकता और राष्ट्रीयता की संवाहिका का पर्याय बनाकर उसे राष्ट्रभाषा के पद पर आरूढ़ करने में कृत संकल्प मनीषियों के संघर्ष को व्यापक अभिव्यक्ति दी गई है।

भाषा के उन्नयन और प्रतिष्ठापन में किए गए क्रांतिकारी आंदोलनों की भूमिका का ब्योरेवार चित्रण प्रस्तुत किया गया है। विशेष रूप से आर्य समाज आंदोलनों और राष्ट्रीय कार्यक्रमों के तहत विभिन्न संस्थाओं, संगठनों और स्वराज एवं स्व भाषा की आवाज़ उठाने वाले शिक्षकों, स्वयं सेवकों की वैचारिक क्रांतियों का चित्रण, और ब्रिटिश सरकार की अँग्रेज़ी भाषा को हिंदी का विकल्प बनाने की षड्यंत्रकारी नीतियों भर्त्सना में लेखिका की धारदार क़लम चली है। ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध शिक्षा आंदोलन चलाने वाले पुरोधा आर्यसमाजियों का योगदान, हिंदी के समर्थक और प्रचारक राजनीतिज्ञों, प्रतिभावान साहित्यकारों जिसमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद, काका कालेलकर, सत्यदेव विद्यालंकार, प्रकाशवीर शास्त्री का हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के राष्ट्रव्यापी अभियानों का समग्र और विस्तृत वर्णन लेखिका की असाधारण अध्ययन प्रतिभा का परिचायक है। 

हिंदी की संवैधानिक स्थिति को परिभाषित करते समय लेखिका की गवेषणात्मक प्रतिभा और सूक्ष्म दृष्टि उभर कर आई है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान राष्ट्रवादियों ने राष्ट्र को जगाने के लिए राष्ट्रभाषा शब्द को हथियार के रूप में अवश्य प्रयुक्त किया था, लेकिन स्वाधीनता के बाद भी यह सपना, सपना मात्र बनकर रह गया। जिसके पीछे सरकार का अँग्रेज़ी के प्रति अतिशय मोह, हिंदी के प्रति संशयात्मक प्रवृत्ति, राजभाषा आयोग और संसदीय समिति द्वारा अँग्रेज़ी भाषा के प्रयोग को जारी रखने की सिफ़ारिश, दक्षिण का विरोध आदि हिंदी विरोधी शक्तियाँ विशेष रूप से कारगर रहीं थीं। लेखिका की पैनी क़लम ने नीर क्षीर विवेक द्वारा संविधान के उन सभी प्रावधानों को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है जिनमें बारम्बार यह याद दिलाया जाता रहा है कि अँग्रेज़ी हिंदी की नहीं बल्कि हिंदी अँग्रेज़ी की अनुयायी है। इन सभी विरोधों के बावजूद आज ऐसी कई सक्रिय संस्थाएँ हैं जिनके हिंदी प्रचार प्रसार में उल्लेखनीय योगदान को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता जैसे हिंदी साहित्य सम्मेलन, हिंदी प्रचार सभा, मुंबई विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, केंद्रीय हिंदी समिति इत्यादि संस्थाएँ राजभाषा हिंदी के प्रचार प्रसार में कृत संकल्प है जिनके कार्यकलापों पर विहंगम दृष्टिपात किया गया है। 

इतना ही नहीं आगे विज्ञान और तकनीकी में, संचार प्रसार, कम्पयूटर, इलेक्ट्रानिक मीडिया, ई-मेल, इ-व्यापार, ब्लॉग लेखन ब्लॉग अंतरजाल इत्यादि विषयों की भी पूरी जानकारी दी गई है। हिंदी के बृह्त्त वैश्विक परिदृश्य में विभिन्न पश्चिमी देशों के जैसे मॉरिशस, फिजी, कनाडा, जापान, थाईलैंड, इंडोनेशिया के विश्व विद्यालयों में हिंदी के पठन-पाठन और शोध कार्यों का ब्योरेवार विवरण प्रस्तुत किया गया है। 

पुस्तक का कलेवर बेहद विस्तृत है। हिंदी आज ज्ञान विज्ञान, व्यापार वाणिज्य, धर्म अध्यात्म और राष्ट्रीय चेतना की संवाहक के रूप में व्यवहृत है। इस तथ्य को विवेचनात्मक शैली से अपनी समग्रता और निष्पक्षता से पाठकों के बीच रखने में लेखिका सफल हुई है। लेखिका उन सभी विचार धाराओं का प्रतिवाद करती है जो देश विरोधी और हिंदी विरोधी तत्वों के पोषक है। वैश्विक संदर्भों में हिंदी की असीम संभावनाओं को अभिव्यक्त करती हुई यह कृति निश्चित ही हिंदी प्रेमियों और अध्येताओं के लिए पठनीय है। 

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