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मैं ऑटो वाला और चेतेश्वरानंद – 2

मैं क़रीब तीन किलोमीटर तक पैदल चला तब जाकर मुझे स्टेशन तक जाने के लिए एक बस मिली। जितनी देर मैं पैदल चला उतनी देर मेरी अश्रुधारा भी चलती रही। बस यही सोच-सोच कर कि पापा-अम्मा मुझे इतनी जल्दी छोड़कर क्यों चले गए। किसके सहारे छोड़ गए। लेकिन मैं किसी हालत में यह नहीं चाहता था, कि मेरे आँसू किसी और की आँखों को दिखे, तो बस के आते ही मैं एकदम शांत पत्थर सा बन गया। बस में ही मैंने सोचा कि लगे हाथ रांची वाली बहन के यहाँ भी हो लें। देख लें कि उनके लिए भी मैं अभिशप्त व्यक्ति हूँ या कि वह मुझे अभी भी अपना वही प्रिय भाई मानती हैं। 

मगर वाह रे मेरा भाग्य कहें या अपने परिजन की मूढ़ता कि, ‘कालसर्प’ योग की प्रेत-छाया मुझ से पहले वहाँ पहुँच गई थी। उन्होंने भी अपने बच्चे को मेरे पास तक नहीं आने दिया। यहाँ पहले वाली बहन के यहाँ से ज़्यादा भय आतंक देख कर मैं मुश्किल से बीस मिनट रुका। चाय के लिए साफ़ मना कर दिया। मुझे लगा इससे ज़्यादा समय तक रुकना पड़ेगा। जैसे बेमन से पानी दिया गया था वैसे ही बेमन से एक बिस्कुट खा कर पानी पिया और ज़रूरी काम का बहाना बना कर चल दिया। 

किसी ने एक बार भी नहीं पूछा कि, भैया अभी तुम ऐसा कौन सा काम करते हो कि यहाँ रांची में ज़रूरी काम आ गया। भाई-बहन सब के व्यवहार से मन इतना टूट गया, इतना गुस्से से भर गया सब को लेकर, कि मैंने सोचा कि जब-सब के लिए मैं एक अभिशप्त व्यक्ति हूँ, मेरी छाया से भी घृणा है सबको, तो ठीक है, अभी से ही सारे रिश्ते-नाते ख़त्म। घर पर एकदम अलग रहूँगा। किसी से भी संबंध नहीं रखूँगा। फिर सोचा एक ही घर में रहकर यह संभव नहीं है। इससे भाई-भाभी सब हमेशा आतंकित रहेंगे। आश्चर्य नहीं कि इसके कारण कभी वह मुझे घर से ही निकाल दें। 

हालाँकि मकान तो पापा ने बनवाया है, लेकिन फिर भी क्या ठिकाना। भयभीत भैया कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी रास्ता निकाल सकते हैं। यह सोच कर मैंने सोचा बाबा के यहाँ गाँव चलता हूँ। पिताजी के हिस्से की कुछ प्रॉपर्टी तो अब भी है वहाँ। चाचा से कहूँगा कि मेरे रहने और किसी काम-धंधे की कोई व्यवस्था कर दें। लेकिन बाबा के यहाँ गोरखपुर तक जाने के लिए मेरे पास पूरे पैसे नहीं थे। 

सारी उलझनों, जोड़-घटाने के बाद यह सोचकर बिना टिकट ही एक ट्रेन की जनरल बोगी में भीड़ में धँस कर बैठ गया कि टीटी देख नहीं पाएगा। बचा रहूँगा। और देख लेगा तो जो होगा देखा जाएगा। ट्रेन में बैठने से पहले जो थोड़े बहुत पैसे थे उससे एक छोटे से ढाबे टाइप होटल में खाना खा लिया। पिछले दो दिन से ठीक से खाना नहीं खाया था। भूख के मारे आँतें ऐंठ रही थीं। ख़ाली पेट पानी भी नहीं पिया जा रहा था। 

मगर सिर मुँड़ाते ही ओले पड़े। पिताजी इसी के समानांतर ख़ुद कही एक कहावत बोलते थे कि, ‘सिलेंडर ख़त्म होते ही मेहमान पधारे।’ तो यही हुआ मेरे साथ। गोरखपुर से कुछ स्टेशन पहले ही मजिस्ट्रेट चेकिंग हो गई। धर लिए गए। एक-आध दर्जन नहीं क़रीब चार दर्जन लोग धरे गए थे। जिसे मैं एक्सप्रेस ट्रेन समझ कर बैठा था वह पैसेंजर थी। बाद में पता चला कि इस पैसेंजर ट्रेन में अक़्सर ऐसी चेकिंग होती रहती है। मगर पता नहीं माता-पिता की या कि भगवान की कृपा रही कि जीआरपी वालों ने नाबालिग़ लड़कों को डाँट-डाँट कर भगा दिया। 

मेरा आधार कार्ड देख कर उसने कहा, ‘देखने में तो ज़्यादा लगते हो।’ मैंने उनसे झूठ बोला कि आते समय रास्ते में कुछ लोगों ने मेरे पैसे छीन लिए। उसने सिर पर एक टीप मारते हुए कहा, ‘चल भाग यहाँ से। दोबारा ऐसी हरकत ना करना।’ उस छोटे से स्टेशन से बाहर निकला तो वह लड़का भी मिल गया जो मेरे साथ पकड़ा गया था। उसने टिकट इसलिए नहीं लिया था क्योंकि उसके पैसे सच में गिर गये थे। 

वह लखनऊ के एक व्यवसायी का बेटा था। अपने रिश्तेदार के यहाँ से लौट रहा था। एक स्टेशन पहले ही बैठा था कि बस ‘सिलेंडर ख़त्म होते ही मेहमान आ पधारे।’ लेकिन वह बहुत प्रैक्टिकल और दबंग क़िस्म का था। मिनटों में उसने मुझसे बातचीत कर सब कुछ जान लिया और मुझे मुफ़्त में बड़ा ज्ञान दिया। कहा कि, ‘जब तुम्हारे भाई-बहनों ने तुम्हें त्याग दिया है तो चाचा कहाँ रहने देंगे। वह तो पहचानेंगे भी नहीं।’ उसने एकदम सही समय पर एकदम सही बात कही थी। 

यह सुनकर मेरा सिर चकरा गया कि अब क्या करूँ। वापस भाई के पास जाना पड़ेगा। लेकिन उसने बहुत समझाया। अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह दी। अपने साथ चलने की सलाह दी। अपने इस हम-उम्र मार्गदर्शक की सलाह पर मैं उसके साथ लखनऊ चल दिया। एक बार फिर से बिना टिकट ही। लेकिन इस बार मैं सुरक्षित मार्गदर्शक के घर पहुँच गया। 

मार्गदर्शक दक्षेस के माँ-बाप, भाई-बहन सब ने दक्षेस का दोस्त समझकर मेरा स्वागत किया। खिलाया-पिलाया भी। अगले दिन मैंने उससे कहा, ‘यार ऐसे कितने दिन चलेगा। तुम्हारे घर में सही बात पता चलने पर इसके पहले कि कोई नाराज़ होने लगे। मेरे लिए कुछ काम बताओ। मैं कॉन्वेंट एजुकेटेड हूँ। इंटर का एग्ज़ाम अचानक आई मुसीबतों के कारण नहीं दे पाया। ट्यूशन वग़ैरह ही कहीं दिलाओ।’ 

उसने कहा, ‘एक-दो दिन रुको। मैं फ़ादर से बात करके कुछ करता हूँ। ट्यूशन वग़ैरह में कुछ नहीं रखा है। वैसे भी उनसे कोई बात छिपाकर मैं आगे नहीं बढ़ता। वह तुम्हारे लिए ज़रूर कुछ करेंगे।’ लेकिन जब उसने बात की तो जो हुआ उसे यही कहेंगे कि जो हुआ बस ठीक ही हुआ। उसके फ़ादर ने साफ़-साफ़ बताया कि, ‘मैं कठिन स्थितियों से घिरा हुआ हूँ। नहीं तो पूरा ख़्याल रखता। पढ़ाई भी पूरी करवाता। मगर फिर भी परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हें ऐसे बेसहारा नहीं छोड़ूँगा। हाँ किसी काम को छोटा नहीं समझना, मन लगाकर करने को तैयार रहना।’ 

मेरी बातों को उन्होंने भरोसे लायक़ समझा और अपने एक बहुत ही पुराने कस्टमर सुनील मसीह से बात की। जो उनसे काफ़ी समय से एक भरोसेमंद आदमी देने के लिए कह रहे थे। लेकिन जब मिला तो उनको ऑटो रिक्शा चलाने के लिए एक ड्राइवर चाहिए था। मैं इसके लिए भी तैयार हो गया। लेकिन अंडरएज, ड्राइविंग लाइसेंस का ना होना बड़ी बाधा बना। तो दक्षेस के पिता ने उनसे कहा, ‘यह बताता है कि इसे ड्राइविंग बहुत अच्छी आती है। टेस्ट ले लो, अगर ठीक हो तो चलवाओ। इसके 'आधार कार्ड '  के हिसाब से ग्यारह महीने की ही बात है।’ 

सुनील मसीह बहुत ही ज़्यादा कहने-सुनने समझाने के बाद तब माने जब दक्षेस के पिता ने पूरी ज़िम्मेदारी ले ली। इसके बावजूद उन्होंने घंटे भर एक बेहद बिज़ी रोड पर ड्राइव करवाया। ख़ुद पीछे बैठे रहे। मेरी ड्राइविंग से वह पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुए, बड़े संकोच हिचक के साथ अगले दिन से ड्राइव करने के लिए ऑटो सौंपा। रोज़ बारह घंटे चला कर मुझे उन्हें पाँच सौ रुपये कोटा देना था। बाक़ी कमाई मेरी थी। मगर पहले ही दिन घाटा हुआ। मैंने दक्षेस से दो सौ रुपये उधार लेकर कोटा पूरा किया। मगर धीरे-धीरे गाड़ी लाइन पर आ गई। 

सुनील जिन्हें मैं अंकल कहता था, जल्दी ही मुझ पर पूरा भरोसा करने लगे। अपने परिवार को भी कहीं जाने-आने के लिए मेरे साथ ही भेजने लगे। चार महीने बीतते-बीतते अपने ही घर में एक कमरा किराए पर दे दिया। उनका उद्देश्य था कि वह मुझसे ज़्यादा से ज़्यादा काम ले सकें। वह सफल भी हुए। असल में दक्षेस के यहाँ से मुझे इसलिए भी हटना था क्योंकि उनका परिवार बड़ा था। इसलिए उनका बड़ा मकान होते हुए भी छोटा पड़ता था। मैं सुनील अंकल का ऑटो ड्राइवर से लेकर घरेलू नौकर, सहायक सब बन गया। सामान वग़ैरह भी लाने लगा। मैं खाना बनाने में अपना समय ना बर्बाद करूँ इसलिए मेरा खाना भी वह अपने यहाँ बनवाने लगे। 

उनके परिवार में मैं इस तरह मिक्स हो गया कि बताने पर ही कोई यह समझ सकता था कि मैं परिवार का सदस्य नहीं हूँ। नौकर हूँ। सुनील अंकल मुझसे ख़ुश रहते और दिन में चौदह-पन्द्रह घंटे शराब पीकर मस्त रहते। पूरा मसीह हाउस मेरे भरोसे छोड़ कर वह पूरी तरह निश्चिंत हो गए। इस मसीह हाउस ने मुझे जीवन जीने, आगे बढ़ने का आधार दिया। साथ ही मुझे वह बनने के लिए भी उद्वेलित किया जो मैं आज हूँ। मुझे जीने हेतु जो आधार दिया उस आधार ऑटो को त्यागने के लिए भी उद्वेलित किया। 

इसके लिए ज़िम्मेदार उनके यहाँ हर डेढ़-दो महीने के अंतराल पर आने वाला एक मेहमान था। वह जब आता तो घर में कई और ऐसे लोगों का आना-जाना बढ़ जाता जो किसी चर्च, किसी कॉन्वेंट के लगते। मेरी शिक्षा मिशनरी के कॉन्वेंट स्कूल में हुई थी तो मुझे यह सब जल्दी समझ में आ जाता है। जब वह आता तो मेरा काम दुगना बढ़ जाता और उस दिन की कमाई शून्य हो जाती थी। 

पूरे शहर में उसी को लेकर जाना पड़ता। अंकल तब कोटा भी नहीं लेते थे। वह ज़्यादातर लखनऊ के कई प्रमुख चर्चों में जाता था। वह जब भी मिलते तो मुझे ईसाई धर्म की महानता के बारे में ख़ूब बताते। उनके अनुसार पृथ्वी पर वही एक धर्म है जिसके रास्ते पर चलकर जीवन की सारी ख़ुशियाँ पाई जा सकती हैं। सिर्फ़ उनके प्रभु यीशु की शरण में जाकर ही महान दयालु गॉड की कृपा मिलती है। वह इतना दयालु है कि उसकी शरण में जाते ही सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जीवन में ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ बरसती हैं। 

जब उनको लगा कि मैं उनकी बातों में रुचि लेने लगा हूँ तो मुझे बड़े गिफ़्ट और पैसे भी देने लगे। एक बार वह केवल दो दिन के लिए आए। साथ में एक अँग्रेज़ दंपती भी आया, जो ब्रिटेन से था। बेहद मृदुभाषी और सरल स्वभाव का वह युवा दंपति मुझसे चार साल ही बड़ा था। अब तक मैंने भी शादी कर ली थी। अब अंकल सुनील मसीह मेरे ससुर बन चुके थे। 

दरअसल उनके यहाँ पहुँचने के लगभग डेढ़ साल बाद मुझे एहसास हुआ कि उनकी बेटी आहना मेरे क़रीब आती जा रही है। थोड़ा सा ध्यान दिया इस तरफ़ तो पाया कि अंकल-आंटी दोनों ही बेटी मेरे साथ ज़्यादा समय तक रहे इसके लिए अवसर उपलब्ध कराने के प्रयास में लगे रहते हैं। जब-तक गहराई से समझूँ तब-तक बात इतनी आगे बढ़ चुकी थी, कि एक दिन अंकल ने मुझे एवं कुछ और लोगों को बुलाकर चर्च में आहना के साथ मेरी शादी करवा दी। यह दंपती जब आया था तब मेरी शादी को कुछ ही महीने हुए थे। संयोग से उस दंपति की शादी भी इतने ही समय पहले हुई थी। 

अब मैं परिवार के सम्मानित सदस्य के तौर पर सब से मिल रहा था। बेहद हँसमुख मिलनसार मिलर दंपती हमारे साथ पहले दिन से ही बहुत घुल-मिल गए थे। आने के अगले दिन मिलर दंपती को घुमाने की ज़िम्मेदारी मेरी थी। और बार-बार आने वाले मिस्टर कॉर्टर अकेले ही किसी ज़रूरी काम से जा रहा हूँ बोलकर निकल गए थे किसी चर्च को। और ससुर जी बोतल लेकर पड़े रहे घर पर। 

मैंने पहले दिन मिलर दंपती को लखनऊ में बने नए दर्शनीय स्थलों पर घुमाया। बजाए पुराने खंडहरों में घुमाने के उन्हें लोहिया पार्क, स्वर्ण जयंती पार्क, अंबेडकर उद्यान, जनेश्वर मिश्र पार्क ले गया। अपने शहर का प्राचीन इतिहास बताया। अँग्रेज़ों, वामियों द्वारा रचित भ्रामक बातें नहीं। यह नवाबों का शहर रहा है यह भ्रामक बात मैंने नहीं बताई। मैंने साफ़-साफ़ सच कहा कि त्रेता युग में भगवान राम हुए थे। दस हज़ार साल पहले जब वह इस धरती पर अवतरित हुए तब भी यह शहर था। 

भगवान राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को यह शहर भेंट कर दिया था। तब से यह लक्ष्मणपुर, लखनपुर, लाखनपुर नाम से जाना जाता था। कालांतर में लखनऊ हो गया। लेकिन इन सबके पहले इसका क्या नाम था यह मैं नहीं जानता। वह किसी भ्रम में ना रहे इसलिए मैंने उन्हें यह भी साफ़-साफ़ बता दिया कि दुनिया में इस सबसे ज़्यादा प्राचीन देश भारत की संस्कृति उसके गौरव को नष्ट करने के लिए ग़ुलामी के समय में इसके इतिहास को भी कुटिलतापूर्वक बदलने का प्रयास किया गया कि इससे पहले इसका कोई इतिहास ही नहीं था। 

यहाँ नवाबों का शासन सत्तरह सौ पचहत्तर से अट्ठारह सौ पचास तक ही रहा, उसके बाद उन्नीस सौ सैंतालीस तक ब्रिटिश शासन रहा और प्रचारित यह किया गया कि लखनऊ नवाबों का शहर है। लक्ष्मणपुर या लक्ष्मण की चर्चा तक नहीं होने दी जाती। मिलर दंपती को मैं लक्ष्मण टीला भी ले गया। जहाँ दिखाया कि कैसे ग़ुलामी के समय इसके स्वरूप को बदल दिया गया। दंपती यह जानकर बड़े आश्चर्य में पड़ गया कि यह प्राचीन शहर ईसा से भी हज़ारों वर्ष पहले बस गया था। 

राम एक ऐसे राजा थे जो हज़ारों किलोमीटर दूर लंका तक विजय पताका फहरा आए थे। समुद्र पर लंबा पुल बनवाया था। जिसके अवशेष समुद्र में आज भी हैं। इसकी पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी कर चुका है। अत्याधुनिक तकनीकों के बावजूद समुद्र की प्रलयंकारी लहरों के कारण उस पर पुल बनाना करिश्में से कम आज भी नहीं माना जाता। 

मेरी पत्नी बार-बार रेजीडेंसी चलने को कह रही थी। लेकिन मैं बार-बार नज़रअंदाज़ करता रहा। जब देर शाम को हम घूम-घाम कर लौटे तो मिलर दंपती बहुत थके हुए लग रहे थे। आहना उनसे भी ज़्यादा। तमाम चर्चों, कॉन्वेंटों में चक्कर लगाकर मिस्टर कॉर्टर देर रात लौटे। उन्हें मैं चर्च-मैन कहता था। आगे आप उन्हें इसी नाम से जानेंगे। 

– क्रमशः
 

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