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सेकेण्ड वाइफ़ – 1

नवंबर का दूसरा सप्ताह बस जाने ही वाला था। मौसम बहुत सुहावना हो रहा था। लेकिन मेरा मन बड़ा अशांत था। थका-थका सा, अपना स्ट्रॉली बैग खींचता हुआ ट्रेन की एक बोगी में चढ़ गया। कई सीटों पर इधर-उधर दृष्टि फेंकता हुआ एक सीट पर बैठ कर खिड़की खोल ली, प्लेटफ़ॉर्म पर बहुत चहल-पहल थी।

पिछले कुछ वर्षों में नया रंग-रूप पा जाने से स्टेशन चमक रहा था। सारी व्यवस्था बड़ी चाक-चौबंद लग रही थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि यह अस्त व्यस्त, अव्यवस्था का शिकार कुछ वर्ष पहले वाला काशी स्टेशन है। ट्रेन के लखनऊ प्रस्थान में दस मिनट बाक़ी था। बोगी में इक्का-दुक्का लोग सवार हो रहे थे।

मैं बड़े व्यथित भाव से इंजन की ओर मुँह किए प्लेटफ़ॉर्म पर इधर-उधर, जहाँ तक दृष्टि जा सकती थी, वहाँ तक देख रहा था। मन में एक ही बात घूम रही थी कि पत्नी की मूर्खता के कारण यहाँ आना निरर्थक हुआ। सारे प्रयास करने के बावजूद काम नहीं हो पाया। बार-बार कहा था कि मुझे समय नहीं मिल पा रहा है, तुम पेपर्स बहुत ध्यान से चेक करके रखना। कोई कमी न रहे।

लेकिन फिर भी अपनी लापरवाही की आदत से बाज़ नहीं आई। इसकी लापरवाही से आए दिन कुछ न कुछ नुक़सान होता रहता है। कितना ग़ुस्सा होता हूँ लेकिन . . . बहुत तनाव के कारण मुझे सिर-दर्द महसूस होने लगा। तभी मेरे कानों में चाय वाले की आवाज़ पड़ी तो मैं उससे चाय लेकर पीने लगा।

मन कर रहा था कि यह ट्रेन जल्दी से जल्दी यहाँ से चले और पलक झपकते ही मुझे सीधे घर में पत्नी के सामने उतार दे। जो शादी के पंद्रह साल बाद भी, अपनी ख़ूबसूरती, हद दर्जे के गोरेपन को शीशे में बार-बार देखने की आदत छोड़ नहीं पा रही है। शीशे के सामने से हटेगी तो मोबाइल से चिपक जायेगी।

दिनभर में दस बार कभी इंस्टाग्राम तो कभी फ़ेसबुक पर अपनी ही फोटो खींच-खींच कर पोस्ट करना, फिर बार-बार देखना कि फोटो को कितने लोगों ने लाइक किया, कॉमेंट लिखे। भद्दे अश्लील कॉमेंट लिखने वालों को ऊलजलूल बातें कहते हुए उन्हें ब्लॉक करना। न बच्चों का ध्यान, न घर का। बार-बार कहता हूँ कि इससे क्या फ़ायदा मिल रहा है, लोग कैसे भद्दे-भद्दे अश्लील कॉमेंट करते हैं।

लफंगे, क्रिमिनल्स, फोटोशॉप के ज़रिये किसी नेकेड लेडी के चेहरे पर तुम्हारे चेहरे को फ़िट करके उसे तुम्हारी नेकेड फोटो के रूप में वायरल कर के बदनाम कर सकते हैं। ब्लैक-मेल कर सकते हैं। लेकिन एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देगी या कुछ दिन शांत रह कर फिर शुरू हो जायेगी। ज़्यादा कहो तो रोना-धोना, बहस करना कि करोड़ों लोग तो कर रहे हैं।

कुल्हड़ में गरम-गरम सोंधी चाय का दूसरा घूँट ही पी रहा था कि तभी दस-बारह साल के दो आकर्षक गोरे-चिट्टे बच्चे मेरी सामने वाली सीट पर आकर बैठ गए। बैठते ही एक ने तुरंत खिड़की खोल दी। दोनों खिड़की की तरफ़ बैठना चाहते थे। उन्हें देखते हुए मैंने चाय का अगला घूँट पिया ही था कि बिल्कुल सफ़ेद सलवार-सूट में एक सूटकेस, एयर बैग लिए उनकी माँ आ गई।

बिल्कुल मेरी पत्नी सी ही गोरी चिट्टी, भरे-पूरे शरीर की। आँखें मेरी पत्नी की बड़ी-बड़ी काली आँखों की तरह काली नहीं, कंजई थीं। पत्नी की आँखों की तरह इतनी आकर्षक कि मेरी दृष्टि उनकी आँखों में क्षण-भर को खो गई। तभी मुझे लगा कि यह तो जानी-पहचानी सी लग रही हैं, कहीं देखा है इन्हें, मिला हूँ, बार-बार मिला हूँ। यह मेरा भ्रम बिल्कुल नहीं है।

लेकिन कहाँ? यह याद नहीं आया। दिमाग़ में यह 'कहाँ?' बार-बार कौंधने लगा। इसी बीच इंजन की सीटी सुनाई दी और ट्रेन कुछ ही सेकेण्ड में सरकने लगी लखनऊ की ओर। मैंने जल्दी से चाय का एक और घूँट पिया। 'कहाँ?' मेरे दिमाग़ में बहुत तेज़-तेज़ चलने लगा। मेरी पैसेंजर ट्रेन की गति से भी सैकड़ों गुना तेज़।

लेकिन मुझे 'कहाँ?' का उत्तर नहीं मिला। और ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म को पीछे छोड़कर मेन लाइन पर आ गई। मैंने कुल्हड़ खिड़की से बाहर फेंक दिया। ट्रेन आउटर के ऊँचे केबिन को क्रॉस करते-करते राणा के चेतक की तरह सरपट दौड़ने लगी। और मेरा दिमाग़ स्नाइपर गन से निकली गोली की गति से 'कहाँ?' का उत्तर ढूँढ़ने लगा था। इतनी देर में मुझे यह तो कन्फ़र्म हो गया कि देखा, मिला लखनऊ में ही हूँ।

ट्रेन पंद्रह-बीस किलोमीटर ही आगे बढ़ी थी लेकिन 'कहाँ?' के उत्तर की खोज में मेरा दिमाग़ लखनऊ पहुँच चुका था। खंगालने लगा पूरी लखनऊ नगरी को। सी.बी.आई., एन.आई.ए. की तरह कड़ी से कड़ी जोड़ने लगा कि इनसे कहाँ मिलता रहा हूँ, इनका नाम क्या है ?

कभी एक कड़ी जुड़ती, तो कभी अगली कड़ी टूट कर बिखर जाती। मैं फिर जोड़ने लगता। इसी के साथ-साथ आये दिन पत्नी द्वारा मिलने वाला यह ताना दिमाग़ में धाँय से गूँज उठता कि, "तुम जैसा भुलक्कड़ आदमी आज-तक नहीं देखा। तुम्हारी इस आदत ने मेरी नींद उड़ा रखी है। किसी दिन तुम बच्चों, मुझसे यह न पूछ लो कि आप लोग कौन हैं? मेरे घर में क्या कर रहे हैं ?" यह बात सवा सोलह आना नहीं, बल्कि साढ़े सोलह आना सच है कि मैं बहुत बड़ा भुलक्कड़ हूँ, लेकिन इतना भी नहीं कि पत्नी,बच्चों को भूल जाऊँ। उनसे पूछने लगूँ कि आप लोग कौन हैं ?

ट्रेन अपनी निर्धारित गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ती जा रही थी। वह मेरे सामने बैठी मोबाइल में कुछ देखने में लगी हुई थीं। एक बेटा उनकी बग़ल में खिड़की से चिपका बैठा बाहर देख रहा था। दोनों खिड़की के लिए न झगड़ें, इसलिए उन्होंने दूसरे बेटे को दूसरी तरफ़ ख़ाली चेयर सीट पर खिड़की खोल कर बैठा दिया था। वह भी बाहर दूर पीछे को भागते मकानों, खम्बों, पेड़ों, खेतों को देखने में लगा था। उन दोनों को व्यस्त करके उन्होंने अपने लिए शांति ढूँढ़ ली थी।

कुछ ही देर में मैं ऐसा महसूस करने लगा कि जैसे वह अवसर मिलते ही कनखियों से मुझे देख लेती हैं। उनका सफ़ेद सिल्क का सूट उनके बदन से बिल्कुल चिपका, उसी में समा जाने की कोशिश करता हुआ प्रतीत हो रहा था। सफ़ेद रंग उनके उजले बदन से होड़ करता हुआ लग रहा था। हमारे आस-पास की चारों खिड़कियाँ खुली हुई थीं। बाहर से आती तेज़ हवा भी उनके साथ अठखेलियाँ कर रही थी। उनका दुपट्टा बार-बार सरक जाता था।

उनकी ख़ूबसूरत सुदृढ़ गर्दन में सोने की मध्यम मोटाई की चेन में पड़ा पेंडुलम गर्दन सी ही सुदृढ़ बनावट वाले उनके स्तनों की बीच की गहराई को चूमता हुआ लग रहा था। पता नहीं मैं कितना सही हूँ, लेकिन मैंने ऐसा महसूस किया था कि जैसे वह जानबूझकर दुपट्टे को उसके तयशुदा स्थान से नीचे किये हुए थीं।

क्या कोई महिला ट्रेन में एक अनजान आदमी के सामने अपने मोबाइल में इतना खो सकती है कि, उसका ध्यान इस तरफ़ जाए ही ना कि उसका दुपट्टा अपने उचित स्थान से बहुत दूर चला गया है। और स्तनों का बड़ा भाग सामने बैठे आदमी की आँखों को बार-बार अपनी ओर खींच ले रहा है। बार-बार उसके मन में अपने लिए बहुत से विचारों, कल्पनाओं का बवंडर पैदा कर दे रहा है। जिसमें कुछ अश्लील तो कुछ बहुत अश्लील होते हैं।

मेरी इस बात पर आदर्शवादी मुलम्मे वाले कहेंगे आपकी दृष्टि दूषित है, उसे शुद्ध कीजिये, वो क्या, कैसे पहनेंगी यह उनका विशेषाधिकार है। अच्छी बात है भाई। मैं भी हृदय से उनके इस विशेषाधिकार का सम्मान करता हूँ। तभी तो पत्नी इस अधिकार का भरपूर प्रयोग करते हुए जो मन में आये, जैसे चाहे वैसे कपड़े पहनती है। घर में तो उसे टी-शर्ट और शॉर्ट्स जैसा बरमुडा के सिवा कुछ और भाता ही नहीं।

मैं जब कभी व्यंग्य में उसकी खुली हुई मोटी जाँघों की ओर संकेत करते हुए कह देता हूँ कि, ‘तुम इतने ज़्यादा कपड़े क्यों पहन लेती हो कि लगता है जैसे बुर्का लाद लिया है।’ तो पता नहीं क्या समझ कर, क्या सोच कर, हर बार यही कहती है कि, "क्या चाहते हो घर को नैचुरिस्ट फ़ैमिली वाला घर बना दूँ।"

मुलम्मे वालों से मैं इतना ही कहता हूँ कि कुछ भी दूषित तभी होता है जब कारण उत्पन्न होता है। तुम खोखले लोग आदर्शवादी चोंचलों से यथार्थ कभी नहीं बदल पाओगे। लगे रहो, मेरे जैसे लोग तुम जैसों की परवाह ही कहाँ करते हैं।

ख़ैर मैं अपने सामने बैठी श्वेत-सुंदरी की बात कर रहा था। एक दूसरे को चोरी से देख लेने की आँख-मिचौली में कई-कई बार हमारी आँखें मिल जातीं। ऐसे में मैं जहाँ संकोच के साथ इधर-उधर देखने लगता, वहीं उनके चेहरे पर मुझे व्यंग्य भाव दिखाई देते। जबकि मेरे चेहरे पर संकोच के अलावा कोई और भाव नहीं होते थे।

श्लील अश्लील आदि कोई भाव पैदा ही नहीं हो रहे थे, क्योंकि मेरा मन वहाँ था ही नहीं। वह लक्ष्मण की नगरी लखनऊ में 'कहाँ?' का उत्तर ढूँढ़ने में व्यस्त था। कोई सुराग़ मिल नहीं रहा था, और ट्रेन चलती ही चली जा रही थी।

बेहद तनाव-पूर्ण स्थितियों में क़रीब आधे घंटे का समय बीत गया और ट्रेन एक छोटे से स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर रुक गई। उसी समय मैंने सोचा कि कुछ चाय-नाश्ता लेकर इन्हें भी आमंत्रित करता हूँ। खाने-पीने के साथ बात शुरू हो तो बात आगे बढ़े। 'कहाँ?' का उत्तर मिले। मुझे जो भी करना है, तुरंत करना है, क्योंकि इस छोटे से स्टेशन पर ट्रेन कुछ ही देर रुकेगी यह सोचते हुए मैं सक्रिय हुआ ही था कि वह बाथरूम की ओर चली गईं।

मेरी सक्रियता पर शुरुआत के साथ ही ग्रहण लग गया। मेरा तनाव एकदम बढ़ गया। मैंने सोचा चलो आगे फिर प्रयास करता रहूँगा। ख़ुद के लिए मैंने एक चाय ले ली। काशी में जो चाय ली थी वह चौथाई भी पी नहीं पाया था। तभी मन में आया कि चलो बच्चों के लिए कुछ लेता हूँ। बच्चों से शुरुआत कर माँ तक पहुँचता हूँ। मगर फिर यह सोचकर ठहर गया कि माँ की अनुपस्थिति में बच्चों को कुछ भी देना बहुत ग़लत संदेश दे सकता है, जबकि माँ आने ही वाली है।

एक बार फिर सक्रियता प्रारंभ होते ही शांत हो गई। तभी गाड़ी ने सीटी दी और उसी के साथ बढ़ चली मंज़िल की ओर। छोटे बच्चे ने इसके साथ ही मुड़ कर एक बार बाथरूम की तरफ़ देखा और बैठ गया। मेरे सामने बैठा बड़ा अपनी जगह जमा रहा। इस तरह एक बार फिर चाय पर उन्हें आमंत्रित करने की इच्छा अधूरी ही रह गई। गाड़ी ने जब प्लेटफ़ॉर्म पीछे छोड़ना शुरू किया, तभी वह आकर बैठ गईं।

बैग से एक छोटा तौलिया निकाल कर मुँह-हाथ पोंछा। फिर बालों की सी-पिन निकाल कर तीन-चार बार कंघा किया और उन्हें पीछे जूड़ा सा बनाकर फिर से सी-पिन लगा दी। उनके बाल कमर तक लंबे और घने थे। एकदम ब्राउन-ब्लैक कलर से रंगे बालों की ख़ूबसूरती बता रही थी कि वह उनकी देख-भाल बहुत सँभाल कर करती हैं। उन्होंने बैग से फिर मोबाइल निकाल लिया।

मुझे वह अब पहले से ज़्यादा तरोताज़ा, ख़ूबसूरत लगने लगीं। अब मुझे और ज़्यादा यह महसूस होने लगा कि मैं इनसे मिला हूँ। बार-बार मिला हूँ। याद करने की हर असफल कोशिश मुझमें बहुत ज़्यादा खीझ पैदा कर रही थी। इस बीच खिड़कियों से आती तेज़ हवा फिर उनके दुपट्टे को उड़ाने लगी थी।

मैंने दिमाग़ पर और ज़ोर डालना शुरू किया कि कुछ तो याद आए। कोई तो क्लू मिले, जिसके आधार पर बातों का सिलसिला शुरू कर सकूँ। मैं लखनऊ के एक-एक रिश्तेदार, दोस्त को याद करने लगा कि, मिला तो इन्हीं में से किसी के यहाँ होऊँगा।

इस प्रयास में ऐसे बहुत से दोस्त, रिश्तेदार भी याद आ गए, जिन्हें बहुत दिनों से क्या सालों से भूला हुआ था। दुनिया भर के कामों और अपने थोड़ा घमंडी स्वभाव के कारण मैं इन सब से दूर होता गया था।

मैं महसूस कर रहा था कि जैसे-जैसे गाड़ी की स्पीड बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे 'कहाँ?' का उत्तर जानने की मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही है। यह डर भी बराबर परेशान कर रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि जब-तक मैं 'कहाँ?' का उत्तर ढूँढ़ूँ, उसके पहले ही यह किसी स्टेशन पर उतर जाएँ। लखनऊ से पहले ही इनका गंतव्य आ जाए।

क्या करूँ? क्या करूँ? कैसे याद करूँ? यह सोचते-सोचते लगा जैसे मेरे मस्तिष्क की शिराएँ चटखने लगी हैं। अगर वह सामने नहीं होतीं तो शायद मैं खीझ कर अपना सिर पीट लेता। एन.आई.ए. (नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी) की तरह फिर से कड़ी जोड़ने लगा। मैं खिड़की से बाहर देख ज़रूर रहा था, लेकिन सच यह था कि मेरी आँखें ऐसे निर्लिप्त थीं कि बाहर की किसी भी चीज़ का प्रतिबिंब मेरे दिमाग़ में नहीं बन रहा था।

मेरे दिमाग़ में उन्हीं का प्रतिबिंब स्थायी रूप से बना हुआ था। मेरा सिर हर दो-तीन मिनट में अपने आप ही किसी ना किसी बहाने उन पर एक नज़र डालने के लिए अंदर की ओर मुड़ ही जाता था। मेरे इस सर्वथा अनुचित काम को वो देख-समझ न लें, इसलिए बहाना बनाते हुए दूसरी तरफ़ बैठे उनके बच्चे की तरफ़ देखने लगता।

यह सब करते-करते मेरी व्याकुलता इतनी बढ़ी कि, मैं और ज़्यादा बैठ नहीं सका। उठ कर चला गया वॉशरूम की तरफ़। वहाँ मुँह-हाथ धोकर रुमाल से पोंछा और कुछ देर खड़ा रहा बोगी के दरवाज़े पर। पत्नी की जिस लापरवाही से मन अशांत था ट्रेन में बैठने तक, अब वह दूर-दूर तक दिमाग़ में कहीं नहीं था।

दरवाज़े पर भी मन नहीं लगा, बोगी में छिटपुट लोग और बैठे हुए थे। मन में आया कि सीट बदल दूँ। तमाम तो ख़ाली पड़ी हैं। मगर ऐसा करने की हिम्मत ही नहीं जुटा सका। फिर वहीं जाकर बैठ गया। तभी मोबाइल पर मिसेज़ की कॉल आ गई कि चल दिए कि नहीं। उसकी आवाज़ से ही मेरा दिमाग़ ग़ुस्से से भन्ना उठा कि, इसकी मूर्खता के कारण नुक़सान हुआ।

वह सामने ना बैठी होतीं तो मैं मिसेज़ पर पूरा का पूरा ग़ुस्सा उतार देता। लेकिन उनके सामने बड़ी शालीनता से बात की। मैं हर वह सूत्र तलाशने में लगा था जिससे संवाद क़ायम कर सकता। सामने बैठे उनके बच्चे से संवाद क़ायम करना चाहा कि चलो बेटे के सहारे माँ तक पहुँचूँ। लेकिन बच्चे ने ऐसी कोई बात बढ़ने ही नहीं दी जिससे माँ तक पहुँचने का पुल तैयार होता।

मैं खीझ उठा। सारे प्रयासों का परिणाम शून्य निकल रहा था। इस बीच एक स्टेशन और निकल गया। लेकिन गाड़ी नहीं रुकी। वह छोटा सा हाल्ट स्टेशन था। वहाँ से कुछ ही आगे बढ़ी थी गाड़ी कि बच्चों ने कुछ खाने को माँग लिया। उन्होंने मोबाइल देखते हुए ही कहा, स्टेशन पर ट्रेन रुकने दो। लेकिन दोनों ने फिर कहा तो बैग से चॉकलेट निकालकर पकड़ा दी। बच्चे फिर खिड़कियों के पास जम गए।

वह मोबाइल पर फिर कुछ टाइप करने लगीं। दोनों हाथों से मोबाइल पकड़े अँगूठे से बड़ी तेज़ी से टाइप कर रही थीं। अगला स्टेशन आने तक उनकी टाइपिंग चलती रही। जब-तक गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म पर रुकी तब-तक उन्होंने लंबा-चौड़ा मैटर टाइप कर व्हाट्सएप या फिर मेल पर किसी को भेज दिया। इसके बाद मोबाइल को बैग में रख दिया और बच्चों के साथ सिंक में हाथ धोकर आईं। फिर सैनिटाइज़र से सैनिटाइज़ भी किया।

यह सब देख कर मुझे याद आया कि चलते समय मिसेज ने सैनिटाइज़र, दो एन-नाइंटी फ़ाइव, और दो दर्जन ट्रिपल लेयर वाले मॉस्क दिए थे कि, इन्हें ज़रूर यूज़ करते रहना। लापरवाही नहीं करना। कोविड-१९ इंफ़ेक्शन से तुम्हें पूरा बचाव करना है। तुम्हारी इम्युनिटी बहुत कमज़ोर है।

मगर इसे अपनी भुलक्कड़ई, लापरवाही की पराकाष्ठा कहूँ या क्या कहूँ कि जो मॉस्क मिसेज़ के सामने लगाकर लखनऊ से काशी के लिए चला था, उसे कुछ घंटे के बाद मुँह से नीचे कर दिया था। काशी पहुँच कर जब उसे निकाला तो दुबारा उसकी तरफ़ देखा तक नहीं, ना ही दूसरा निकाल कर लगाया।

सैनिटाइज़र छुआ तक नहीं। जब भी बात दिमाग़ में आई तो यह सोचकर भुला दी कि पिचहत्तर से अस्सी परसेंट और लोग भी तो सैनिटाइज़र, मॉस्क से पीछा छुड़ाए हुए हैं। इसी बीच उसने प्लास्टिक के तीन बॉक्स निकाले। उनमें एल्युमिनियम फ़्यालिंग पेपर में टोस्ट, आमलेट और फ़्रूट जूस का एक छोटा पैकेट था। बेटे माँ के साथ नाश्ता करने लगे।

प्लेटफ़ॉर्म पर काफ़ी शोर था। चाय और फल वाले आवाज़ दे रहे थे। मैंने एक को बुलाकर ब्रेड पकौड़ा और चाय ली। दूसरे से चिप्स, नमकीन के पैकेट लिए। मैं हाथ धोने नहीं गया। सैनिटाइज़र यूज़ कर नाश्ता करने लगा।

मैंने सोचा था कि नाश्ते को उन तक पहुँचने का पुल बना लूँगा, लेकिन उनके व्यवहार ने मेरी योजना को ट्रैक पर आने ही नहीं दिया कि वह आगे बढ़ती। नाश्ता करते समय मेरी नज़र कई बार उन पर गई और साफ़ देखा कि उनकी भी नज़र मुझ तक आई थी। मुझे ऐसा भी लगा कि एक बार वह मुझे देखकर हल्के से मुस्कुराई भी थीं।

उनके खाने के तरीक़े से मुझे लगा कि मुझे कुछ याद आ रहा है। एक धुँधली सी छाया, एक चेहरा, जिसकी नाक की दाहिनी तरफ़ हमेशा एक छोटी सी नथुनी (नथ) रहती थी। दुनिया में कोई पहने या ना पहने, उसको इससे कोई लेना-देना नहीं था।

इसके लिए उसे लड़कियाँ चिढ़ाती भी थीं। लेकिन वह फिर भी पहने ही रहती थी। हाँ! याद आया, सातवीं में मेरे साथ पढ़ती थी। मेरे पड़ोस वाले मोहल्ले में रहती थी। घर के सामने से ही निकलती थी। वह और मैं पढ़ने में तेज़ थे लेकिन शैतानियों में पढ़ाई से भी ज़्यादा तेज़ थे। शैतानियाँ करके भी बचे रहें इसके लिए हमेशा बैकबेंचर्स रहते थे।

वह मुझसे ठीक आगे वाली सीट पर बैठती थी। मेरे साथ मेरे जैसे कई और ख़ुराफ़ाती साथी भी बैठते थे। उसको चिढ़ाने, परेशान करने का कोई भी अवसर हम खोते नहीं थे। असल में जब हम शांत रहते थे तो उसे भी अच्छा नहीं लगता था। वह भी हमें चिढ़ाने, परेशान करने का कोई अवसर छोड़ती नहीं थी। जब हम आठवीं में पहुँचे तो भी साथ में थे।

अब मैं उसे तब काफ़ी प्रचलित शोभा गुर्टू के गाए एक फ़िल्मी गाने, 'नथुनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीना।' का मुखड़ा गा-गा कर चिढ़ाता था। मुखड़ा पूरा होने से पहले ही वह टीचर से शिकायत करने की धमकी देती या फिर ज़ुबान निकाल कर मुँह चिढ़ाते हुए आगे को मुँह फेर लेती।

मैं अक़्सर उसकी लंबी चोटी खींच लेता था। इस पर वह दाँत पीसती हुई पलटवार करती। मुझ पर झपटती। एक-दो घूँसे भी मारती। जिसे मैं हथेलियों पर रोक कर और ज़्यादा चिढ़ाता। इन सबके बावजूद, बार-बार धमकी देकर भी उसने कभी टीचर से या फिर मेरे घर में शिकायत नहीं की। निश्चित ही अपने घर पर अपने पैरेंट्स को भी कुछ नहीं बताती थी। नहीं तो वो झगड़ा करने ज़रूर आते।

लेकिन नौवीं में एक बार इस गाने के लिए टीचर से मार पड़ी। मगर शिकायत उसने नहीं, उसी साल क्लास में आई एक नई लड़की ने की थी। टीचर ने जब उससे पूछा तो उसने भी हाँ बोल दिया। और फिर उन टीचर ने, जिनका नाम गीता मुखर्जी मैं आज भी भूला नहीं हूँ, वह बिल्कुल आग-बबूला हो गईं। मुझे ख़ूब पीटा।

उन्हें यह बिलकुल बर्दाश्त नहीं था कि मैं या कोई भी लड़का किसी लड़की को छुए या फिर गाने गाकर चिढ़ाए। मार खा कर मैं शाम तक बिल्कुल चुप था। अगले दिन सीट भी उससे बहुत दूर अलग कर ली।

मुझे टीचर से मार खाने का कोई दुःख नहीं था। मुझे एकमात्र यह बात बुरी लगी थी कि उसे शिकायत करनी ही थी तो स्वयं करती। दूसरे से क्यों करवाई। मैंने जितना हो सका, उतनी दूरी उससे बना ली। कुछ समय बाद मेरा ध्यान इस तरफ़ गया कि वह भी तभी से बिल्कुल शांत रहती है। शिकायत करने वाली लड़की से भी उसने उतनी ही दूरी बना ली थी, जितनी मैंने उससे बनाई थी।

उससे अलग होने के बाद मैं क्लास में हँसना-बोलना, शैतानियाँ करना एकदम भूल गया। एकदम अलग-थलग चुपचाप रहता। वह भी इसी तरह रहती। जल्दी ही मंथली टेस्ट के नंबर आये तो मैंने टॉप किया और वह सेकेण्ड नंबर पर थी।

याद और साफ़ हुई कि उसके खाने-पीने के तरीक़े और नथुनी की ही तरह इस श्वेत सुंदरी की नथुनी और खाने की शैली भी बिल्कुल उसी की तरह है।

मैं यादों के पिटारे में 'कहाँ?' का उत्तर खोजने में लगा रहा और श्वेत-सुंदरी नाश्ता ख़त्म करके हाथ धोने चली गईं। बच्चे नाश्ता करने में जुटे हुए थे। मैं भी अपना नाश्ता ख़त्म कर हाथ धोने के लिए उसी वॉश-रूम की तरफ़ बढ़ गया कि शायद उनसे बात करने का कोई अवसर मिल जाए। लेकिन परिणाम फिर से ज़ीरो रहा। वह बीच रास्ते में जल्दी-जल्दी आती हुई मिलीं।

ब्रेड पकौड़े के तेल से सने हाथ सिंक में धोकर मैं भी अपनी सीट पर बैठ गया। सब एक बार फिर अपनी-अपनी जगह बैठे हुए थे। ट्रेन चल चुकी थी। लोग और स्टेशन सब पीछे छूटते जा रहे थे, मगर मैं नथुनी वाली अपनी सहपाठिनी का नाम याद नहीं कर पाया। जिसकी याद सामने बैठी उस श्वेत-सुंदरी के कारण आ गई थी। मुझे याद आया कि टीचर की मार के बाद से मेरा स्वभाव ही एकदम बदल गया था। हमेशा चुपचाप रहने लगा था। ऐसे ही क़रीब-क़रीब दो महीने बीत गए।

एक दिन लंच के समय मैं स्कूल के बरामदे के, एक कोने में चुपचाप बैठा था। सामने प्ले-ग्राउंड में खेल रहे छात्र-छात्राओं को देख रहा था। अचानक ही वह भी चुपचाप आकर बग़ल में बैठ गई। उसके बैठते ही मैं उठ कर जाने लगा तो उसने बिना संकोच हाथ पकड़ कर बैठा लिया। मैं कुछ बोल ही नहीं पाया। मुँह से आवाज़ ही नहीं निकली। मैं ऐसे सकपका गया जैसे उसने नहीं टीचर ने बैठा लिया है।

उसका नाम याद नहीं कर पा रहा था, लेकिन उस समय कही गईं उसकी बातें आज भी नहीं भूली हैं। उसने कहा, 'मेरी कोई ग़लती नहीं है। उसने बिना बताए ही जाकर शिकायत कर दी थी। मैंने सोचा टीचर से झूठ बोल दूँ। लेकिन डर के मारे सच बोल गई। मुझे माफ़ कर दो। तुम इतने दिनों से चुप हो। मेरी तरफ़ देखते तक नहीं। बाक़ी सब से भी बोलना बंद कर दिया है। मुझे सच में बहुत दुख हो रहा है। ख़ुद पर बड़ा ग़ुस्सा आ रहा है कि मैंने सच क्यों बोला।'

— क्रमशः

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/09/14 12:05 PM

बहुत सुन्दर कथानक

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