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भारत में विकेंद्रीयकरण के मायने

समीक्ष्य पुस्तक : ‘प्रजातांत्रिक विकेंद्रीयकरण में जनसहभागिता’
लेखिका : डॉ. रश्मि शुक्ला
प्रकाशक : एक्सिस बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य: रुपए 595

समीक्ष्य पुस्तक ‘प्रजातांत्रिक विकेंद्रीयकरण में जनसहभागिता’ के स्वरूप को देखते हुए यह ज़रूरी है कि पहले भारत में लोकतंत्र और उसकी वर्तमान स्थिति पर संक्षिप्त नज़र डाली जाए, तत्पश्चात आगे चर्चा हो।

आधुनिक लोकतंत्र का जनक इंगलैंड भले ही हो लेकिन दुनिया में सबसे पहले लोकतंत्र का बीज भारत में ही पड़ा, अंकुरित हुआ, बढ़ा और दुनिया में अपनी छाप छोड़ रहा है। ऋग्वेद में जिस स्वायत्तशासी व्यवस्था सभा एवं समिति का विस्तार से वर्णन मिलता है उसके अस्तित्व में आने के प्रमाण वैदिक काल से पूर्व लोकायत काल में भी दृष्टिगोचर होते हैं। मगर इस विडंबना को क्या कहेंगे कि भारतीय लोकतंत्र के एक स्वरूप को अपना कर इंगलैंड सहित अनेक पश्चिमी देश जहाँ बहुत पहले ही विकसित राष्ट्र बन चुके हैं वहीं भारत आज भी पिछड़ा हुआ है। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में भारी खामी है। वास्तव में कमी तो इस व्यवस्था के मर्म को समझने और उस रास्ते पर न चल पाने की है। यही कारण है कि मूल भारत जो गाँवों में बसता है के जनमानस को आज भी मूलभूत सुविधाएँ मयस्सर नहीं हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के सिद्धांतों को मानें तो भारत करीब-करीब अकालग्रस्त राष्ट्र है। क्योंकि उसके अनुसार यदि राष्ट्र के 40 प्रतिशत लोगों का बॉडी मास सूचकांक 18.5 से कम है तो इसका सीधा मतलब है कि संपूर्ण आबादी अकालग्रस्त है। भारत में 37 प्रतिशत लोगों का यह सूचकांक 18.5 से कम है। यह आंकड़ा राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो का है। उसके अनुसार अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों की क्रमशः 50 प्रतिशत एवं 60 प्रतिशत आबादी का बॉडी मास सूचकांक 18.5 से कम है। यानी यह दोनों वर्ग जो देश की कुल आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं पूरी तरह से अकालग्रस्त हैं। जब सरकारी आंकड़ों के अनुसार स्थिति इतनी बदतर है तो वास्तविकता का अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है। प्रश्न यह उठता है कि हालात आखिर सुधरते क्यों नहीं हैं? चलिए आज़ादी के पहले का वक़्त भूल जाएँ तो आज़ादी के बाद भी छः दशक बीत चुके हैं। पंचवर्षीय योजनाओं सहित न जाने कितनी योजनाएँ आईं कि आती ही जा रही हैं लेकिन हालात हैं कि अच्छी तस्वीर बनने ही नहीं दे रहे हैं। हाँ! यह ज़रूर हुआ कि भारत में ही दो भारत बसने लगे। एक वह भारत जहाँ तेज़ रफ़्तार अत्याधुनिक महंगी कारें, शॉपिंग मॉल्स, आलीशान बिल्डिंग्स, अत्याधुनिक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण जीवन शैली कुलांचें भर रही है। दूसरा वह भारत जो गाँवों में बसता है जहाँ अभावों का साम्राज्य है। बिजली, पानी, स्कूल, चिकित्सा, सड़क आदि हर चीज़ का अकाल है। अर्थात् विकास तो हुआ मगर बेहद असंतुलित। इसके मूल में योजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन दोनों में खामी नजर आती है। समीक्ष्य पुस्तक में डॉ. रश्मि शुक्ला योजनाओं, उनके क्रियान्वयन को संतुलित रूप देने, आखिरी नागरिक तक विकास पहुँचे, जिससे कि विश्व का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र एक आदर्श बन सके जैसे बिंदुओं पर गहन शोध के बाद बेहद उपयोगी एवं तार्किक निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं। उनका मानना है कि आखिरी व्यक्ति तक विकास पहुँचाने के लिए ज़रूरी यह है कि पंचायती राज व्यवस्था को सही मायनों में सुदृढ़ किया जाए उन्हें और अधिकार दिए जाएँ। सही अर्थों में प्रजातांत्रिक विकेंद्रीयकरण को लाया जाए जिसमें जनता की भागीदारी उच्चतम हो। वह कहती हैं ‘देश की अधिकांश आबादी गाँवों में बसती है अगर गाँव में पंचायती राज सार्थक और सफल हो गया तो सारे देश में स्थायी रूप से लोकतंत्र के भव्य भवन को खड़ा करने में साहस और प्रेरणा मिलेगी।’

वास्तव में देखा जाए तो पंचायत स्तर पर जब ज़्यादा योजनाएँ बनेंगी, स्थानीय स्तर पर उनका क्रियान्वयन होगा तो यह तो तय है कि कम समय में स्थानीय लोगों के ज़्यादा माकूल काम हो सकेगा। केंद्रीय स्तर पर ज़्यादा काम होने का परिणाम यह हो रहा है कि ग्रामीणों के अनुकूल काम कम हो रहा है। केंद्र से वहाँ तक योजना के पहुँचने में बाधाएँ बहुत ज़्यादा हैं। डॉ. रश्मि का स्पष्ट मत है इस बारे में कि ‘योजनाओं का निर्माण करने वाले जनता की वास्तविक आवश्यकताओं के आकलन और अनुमान लगाने के लिए कितना भी परिश्रम करें लेकिन स्थानीय आवश्यकताओं की इष्टतम पूर्ति तभी हो सकती है जब कि लोगों की नियोजन में सक्रिय भागीदारी हो।’ बात बिलकुल साफ है कि सात सितारा संस्कृति से प्रेरित वातानुकूलित कमरों में बैठ कर खेत, खलिहानों, छप्पर, खपरैल, चौपालों का ककहरा नहीं समझा जा सकता। लेखिका ने भी इन चीजों को गहराई से समझने के लिए एक लंबा वक्त गाँव की गलियों, छप्पर, खपरैलों, रहट, टैªक्टरों, नहरों के बीच गाँव वासियों के साथ उनकी सी होकर बिताए, उनकी ज़रूरतों, आकांक्षाओं महत्वाकांक्षाओं को समझा। ख़ासतौर से रायबरेली जनपद के गाँवों में। यही वजह है कि उनके निष्कर्ष बुनियादी समस्याओं को समझने और उनका समाधान प्रस्तुत करने की भूमि तैयार करने में बहुत सहायक हैं। उनका स्पष्ट मत है कि जब गाँव समृद्ध, स्वावलंबी होंगे तभी देश सही मायने में विकसित देश का रळतबा हासिल कर पाएगा। विकास समृद्धि की सीमा में जब तक आखिरी व्यक्ति नहीं आ जाएगा तब तक विकसित राष्ट्र बनने का सपना अधूरा रहेगा। इस सपने का पूरा होना संभव तभी है जब कि भारतीय परिवेश के लिए सबसे अनुकूल पंचायती राज व्यवस्था और सक्षम, अधिकार संपन्न, सुदृढ,़ प्रासंगिक बनाई जाए एवं प्रजातांत्रिक विकेंद्रीयकरण को और बढ़ावा दिया जाए। भारत के संदर्भ में बेबर ने भी साफ लिखा है कि ‘पंचायतें केवल ग्रामीण विकास को ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत के विकास की धुरी हैं।’ इस धुरी को साधने के लिए साध्य क्या हो इन बातों का भरपूर ब्योरा लेखिका ने इस पुस्तक में दिया है। संपादन, पू्रफ की त्रुटियों को छोड़ दें तो यह एक ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तक है जो एक आम पाठक के साथ-साथ शोधार्थियों के लिए भी बहुत उपयोगी है।

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