मंज़िल चाहें कुछ भी हो
काव्य साहित्य | कविता ममता मालवीय 'अनामिका'1 Nov 2020
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
कैसे भी हो हालात मगर,
अपना हर फ़र्ज़ निभाते जाना।
बहना तुम एक दरिया सा,
अवसाद किनारे लगाते जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
बनना तुम एक चट्टान कभी,
सहारा बेसहारों का बन जाना।
मुश्किलों में मुस्कुराना ऐसे,
जैसे झरनों से जल का बह जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
धैर्य ख़ुद में इतना रखना की,
तुम एक मज़बूत बाँध बन जाना।
तक़दीर जो भी तुम्हे सौगात दे,
उसे बेहतरीन बनाते जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
लड़ना तुम अपने हक़ के लिए,
कभी ख़ुद से जंग कर जाना।
जीत होगी तुम्हारे स्वाभिमान की,
तुम बस कोशिश करते जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
मन चाहा मिलेगा सदैव,
ऐसी चाहत न ख़ुदा से लगाना।
जितना नसीब हुआ है तुम्हें,
बस उसे ही हमेशा सहेजते जाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
ज़रूरी नहीं हमेशा रहे साथ कोई,
तुम ख़ुद को इतना क़ाबिल बनाना।
चलना, गिरना, दौड़ना फिर उठना,
लेकिन अपना जुनून कभी न गँवाना।
मंज़िल चाहे कुछ भी हो,
अपना किरदार निभाते जाना।
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