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एक आभासी मित्र

 

“हैलो!”

एक अनजान नंबर से महिला की आवाज़ आई। 

दीपक थोड़ी-सी घबराहट से जवाब देते हुए कहा, “जी . . . नमस्ते।”

“मैं सुधा बोल रही हूँ, दिल्ली से।”

“जी, मैडम, यह आपका नया नंबर है?” नमस्ते मैडम। 

“क्या मैडम-मैडम लगा रखा है! मैं आपकी पाठक हूँ और मित्र भी।”

“जी सुधा मैडम। फ़ेसबुक के सौजन्य से ही आपसी मित्रता हुई है हम दोनों की। आपको मैं नियमित रूप से गुड मॉर्निंग वाले मैसेज भेजता हूँ और आप भी उसका जवाब ज़रूर देती हैं। मुझे बहुत अच्छा लगता है।”

“मुझे भी बहुत अच्छा लगता है। आप तो मेरी पसंद के फ़िल्मी गीत, व्रत त्योहारों पर छपे आलेखों की कटिंग, अपनी रचनाएँ और तो और दूसरों की उम्दा रचनाएँ भी व्हाट्सएप करते हैं।”

कभी-कभी मैं अपनी रचनाओं को सोशल मीडिया पर डालने से पहले आपके पास भेज देता हूँ, ख़ासकर नारी मन और उससे जुड़ी कहानियों पर आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ।”

“आपकी इसी अदा की मैं क़ायल हूँ।”

“मैडम कभी-कभी डर लगता है। आप रूठ गईं और मुझसे दूर हो गईं तो मुझे काफ़ी दुख होगा।” 

“अरे ऐसा क्यों सोचते हैं? आप तो मेरी आँखों का तारा हैं। आपके डर की वजह?” 

“ऐसा है कि मेरी एक प्रिय आभासी मित्र है, ओह कभी थी। मुझे बहुत सम्मान देती थी। मैं उसे उसके बच्चे-बच्चियों के लिए कई पत्रों के रविवारीय अंकों के पीडीएफ भेजा करता था। एक बार उन्होंने मना कर दिया। मुझे आज तक पता नहीं चला आख़िर उन्होंने ऐसा क्यों कहा।”

“आपसे कोई ग़लती नहीं हुई है। इस घटना पर ओवर थिंकिंग नहीं करना है, मेरे प्रिय लेखक। आभासी मित्र भी बहुत अच्छे होते हैं, अगर वे समान विचारधारा के हों, संवेदनशील और मर्यादा का सम्मान करने वाले हों।”

“आपने बिल्कुल सही कहा। आभासी मित्रता भी तभी टिकती है, जब एक दूसरे के लिए सम्मान हो, बहुत निजी मामले में पूछताछ करने की प्रवृत्ति न हो, बेवजह फोन या मैसेज भेजने से परहेज़ करना भी ज़रूरी है।”

“जी, पीछे हाथ न मलना पड़े, इसका ख़्याल दोनों पक्षों को रखना चाहिए।”

“जी, मैडम।” 

“फिर मैडम-मैडम! मेरा नाम भी है।”

“जी, सुधा मैडम।”

“ओके, गुड नाइट,।” सुधा ने कहा। 

“गुड नाइट सुधा मैडम। बहुत अच्छा लगा आपसे बातें करके,” दीपक ने देखा रात के दस बजने वाले हैं। 

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