धृतराष्ट्र अभी भी ज़िन्दा है
कथा साहित्य | लघुकथा निर्मल कुमार दे1 Apr 2023 (अंक: 226, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
“रंडी, साली को जवान बेटे की भी चिंता नहीं,” सत्तर साल के बूढ़े की ज़ुबान कैंची समान चल रही थी।
“किसे ये गालियाँ दी जा रही हैं? अश्लीलता की भी हद है!” मौक़े पर पहुँचे एक राहगीर ने बग़ल में खड़े पड़ोसी से पूछा।
“अपने ही चचेरे भाई की विधवा बहू को गाली दे रहा है बूढ़ा?” पड़ोसी ने धीरे से कहा।
“क्यों?”
“बहू के इशारे पर चलता है उसका बेटा। ग़लत सम्बन्ध है दोनों में। बूढ़े का कहना है।”
“बेटे को कुछ नहीं कहता?”
“बेटा भी शादी शुदा है। बेटी है एक जो बचपन की देहरी पार कर चुकी है। लेकिन बेटे को कभी गाली नहीं देता है यह बूढ़ा और न कभी तिरस्कार ही किया है,” पड़ोसी ने फुसफुसाकर कहा।
“बिल्कुल धृतराष्ट्र है यह बूढ़ा,” राहगीर ने कहा।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
लघुकथा
- अपने हिस्से का आसमान
- असामाजिक
- आँखें
- आत्मा की तृप्ति
- आस्तीन का साँप
- कचरे में मिली लक्ष्मी
- कबीरा खड़ा बाज़ार में
- कश्मकश
- गुलाब की ख़ुश्बू
- घोड़े की सवारी
- चिराग़ तले अँधेरा
- चिरैया बिना आँगन सूना
- चेहरे का रंग
- जहाँ चाह वहाँ राह
- जीत
- जुगाड़
- जोश
- ठेकुआ
- डस्टबिन
- डाकिया
- तक़दीर
- दर्द
- दाँव
- दीये का मोल
- दो टूक बात
- धिक्कार
- धूप और बारिश
- धृतराष्ट्र अभी भी ज़िन्दा है
- नई दिशा
- नहीं
- नास्तिक
- नीम तले
- नीम हकीम ख़तरा-ए-जान
- पहचान
- पहली पगार
- पुरानी किताबें
- पुश्तैनी पेशा
- प्याजी
- प्यासा पनघट
- बदलाव
- बरकत
- बहू की भूमिका
- भीख
- भेदभाव
- महँगाई मार गई
- माँ की भूमिका
- मैं ज़िन्दा नहीं हूँ
- रँगा सियार
- लड़ाई
- लेटर बॉक्स
- विकल्प
- संवेदना
- सतरंगी छटा
- सपने
- सफलता का राज़
- समझदारी
- सम्बन्ध
- सम्मान
- सर्दी
- सर्वनाश
- सुकून
- सौ रुपए की सब्ज़ी
- हैप्पी दिवाली
- ख़ुद्दारी
- फ़र्क़
कविता
कविता - हाइकु
कविता - क्षणिका
अनूदित कविता
हास्य-व्यंग्य कविता
कविता-मुक्तक
किशोर साहित्य लघुकथा
कहानी
सांस्कृतिक आलेख
ऐतिहासिक
रचना समीक्षा
ललित कला
कविता-सेदोका
साहित्यिक आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं