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नेताजी और जबलपुर शहर

 

महान स्वतंत्रता संग्रामी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जबलपुर शहर से गहरा रिश्ता है। “तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा”, “जय हिन्द” और “दिल्ली चलो” इन तीन प्रेरक नारों के प्रणेता, भारतीयों के युवा सम्राट, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की बहुत सारी यादें जुड़ी हुई है मध्य प्रदेश के मशहूर शहर जबलपुर से। 

अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने तथा जन-जन में क्रांति के लिए ऊर्जा भरने वाले सुभाष चन्द्र बोस को दो-दो बार जबलपुर केंद्रीय कारागार में रखा था अंग्रेज़ी सरकार ने। जबलपुर जेल का निर्माण अंग्रेज़ी हुकूमत ने 1818 ईसवी में किया था। नेताजी को 30 मई 1932 को जबलपुर जेल में रखा गया। उनके साथ उनके बड़े भाई शरत चन्द्र बोस को भी इस जेल में रखा गया था। जेल में रहकर उन्होंने ख़ूब अध्ययन किया। 16 जुलाई 1932 को नेताजी को मद्रास जेल में स्थांतरित कर दिया गया। दूसरी बार इन्हें फिर 18 फरवरी 1933 को जबलपुर जेल में रखा गया। जेल में रहने के कारण नेताजी का स्वास्थ्य बिगड़ गया। डॉक्टरों ने जाँच की और उनकी आंतों में टीबी का संक्रमण पाया। स्वास्थ्य सुधार और इलाज के लिए 22 मार्च 1933 को नेताजी मुंबई होते हुए यूरोप गए। 

आकर्षक व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी सुभाष चन्द्र बोस छात्र जीवन से ही अँग्रेज़ों की आँखों के शूल बन गए थे। 

अपने ओजस्वी भाषण और अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन तथा विभिन्न कार्यक्रमों के कारण इन्हें बार बार बंदी बनाया अंग्रेज़ी सरकार ने। 

एक सुखी संपन्न परिवार में जन्म लेकर ब्रिटिश भारत में आईसीएस की परीक्षा पास करने के बावजूद अंग्रेज़ी हुकूमत के अंदर सरकारी नौकरी न करने की भीष्म प्रतिज्ञा ली थी सुभाष ने। भारत माता को आज़ाद करने गाँधीजी के साथ आज़ादी के जंग में कूद पड़े। नेहरू और सुभाष बीसवीं सदी के तीसरे दशक के उत्तरार्ध में युवा आइकन बन गए थे। दोनों प्रगतिशील विचारधारा के थे। कालांतर में गाँधीजी से सुभाष का वैचारिक मतभेद सामने आ गया। 

1938 में नेताजी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए। 41 साल की उम्र में नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से स्वतंत्र भारत के आर्थिक विकास का ख़ाका तैयार किया और योजना आयोग के अध्यक्ष के रूप में जवाहरलाल नेहरू को मनोनीत किया। 

अपनी वामपंथी और समाजवादी विचारधारा के कारण नेताजी महात्मा गाँधी की नज़रों में खटकने लगे। 

गाँधीजी नहीं चाहते थे कि सुभाष 1939 में दूसरी बार पार्टी अध्यक्ष का चुनाव लड़े। जब सुभाष ने चुनाव लड़ने की इच्छा प्रकट कर दी तो गाँधीजी ने नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद दोनों को सुभाष के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने की सलाह दी परन्तु दोनों ने इंकार कर दिया। अंत में गाँधीजी ने दक्षिण भारत के पट्टाभि सीतारमैया को सुभाष के ख़िलाफ़ खड़ा किया। चुनाव में सुभाष की शानदार जीत हुई। गाँधीजी जी के उम्मीदवार की हार हुई। गाँधीजी ने एक खुलेआम इसे अपनी हार बताया। 

गाँधीजी की नाराज़गी का असर पड़ा। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्य एक-एक कर कमेटी से इस्तीफ़ा दे दिया। 

नेताजी को आभास हो गया कि गाँधीजी की नाराज़गी के मद्दे-नज़र उनका अध्यक्ष पद रहकर काम करना सम्भव नहीं है, अंत में उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। हरिपुरा अधिवेशन के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का 52वां अधिवेशन जबलपुर के निकट त्रिपुरी गाँव में ही हुआ था जिसमें नेताजी को अध्यक्ष के चुनाव में शानदार जीत मिली थी। 

उनकी जीत की ख़ुशी में 52 हाथियों के रथ का विजय जुलूस जबलपुर शहर में निकाला गया था। नेताजी प्रचंड बुख़ार से पीड़ित थे। उनकी अनुपस्थिति में उनकी तस्वीर को रखकर विजय जुलूस निकाला गया था। 

नेताजी ने कभी अपने सिद्धान्तों के साथ समझौता नहीं किया। अगर उनकी समझौतावादी प्रवृत्ति होती और त्याग की भावना की जगह सत्ता लोभ से ग्रसित होते तो अपने चमकप्रद व्यक्तित्व से आज़ाद भारत के प्रधानमंत्री ज़रूर बनते। 

हमें नेताजी के देशप्रेम त्याग और विराट व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने की ज़रूरत है। 

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