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अपने हिस्से का आसमान

कॉल बेल की आवाज़ सुनकर नंदिता ने अपने ससुर जी से कहा, "बाबूजी देखिए बाहर कौन हैं?"

ससुरजी बाहर आए और डाकिए से एक पैकेट लेकर ऊपर आए।

"बेटा! तुम्हारे नाम कुछ आया है। क्या है बेटा?"

"बाबूजी पत्रिका है दिवाली विशेषांक, "नंदिता ने देखा हमसफ़र का नया अंक है।

"डाक से क्यों मँगाई? बाज़ार में तो यह पत्रिका मिलती है।"

"बाबूजी! इसमें मेरी एक रचना छपी है, "संपादक ने लेखकीय प्रति भेजी है।

बहू के जवाब से ससुर को ख़ुशी हुई, "तुम कब से लिखने लगी? अनिल को पता है?"

"बाबूजी! यह मेरे हिस्से का आसमान है। घर में ख़ाली समय क्या करती, सोचा कुछ लिखना-पढ़ना ही हो जाए। अनिल बाबू रात ग्यारह बजे से पहले तो आते नहीं। आप और मम्मी जी नौ बजते-बजते खाना खाकर सोने चले जाते हैं।"

"ठीक है बेटा। अनिल को ख़ुशी ही होगी," ससुर जी ने कहा।

"अब आपके बेटे अनिल बाबू की प्रतिक्रिया देखनी है," नंदिता ने मन ही मन कहा।

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