अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आमने-सामने

रामनवमी के अवसर पर बिंदुधाम मंदिर में भक्तों और दर्शकों की काफ़ी भीड़ थी। बिहार, बंगाल और अन्य राज्यों से हज़ारों की संख्या में लोग प्रतिवर्ष इस मंदिर में आते हैं। झारखंड के साहिबगंज ज़िले के बरहरवा क़स्बा से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर एक टीले पर अवस्थित इस मंदिर का सौंदर्य बहुत ही मनोहारी है। 

लगभग तीस साल बाद अपर्णा आई है मंदिर में पूजा करने। बचपन में और शादी के पूर्व वह प्रायः अपनी सहेलियों संबंधियों के साथ यहाँ नित्य आया करती थीं। आज अपर्णा को पुराने दिनों की यादें कुछ ज़्यादा ही आ रही थीं। 

“अब तो हम लोग वापस चलेंगे। बहुत से पुराने मित्रों से भेंट-मुलाक़ात हो गई। परन्तु बार-बार फ़ोन करने पर भी न जानें क्यों बरूण नहीं आया,” अपर्णा ने अपनी सहेली रीता से कहा। सहेली भी बरहरवा की ही थी जिसकी शादी कोलकाता में हुई है। 

“अरे समय बदल गया। पुराने दोस्त भी समय के साथ बदल जाते हैं, दोस्ती की उष्णता ठंडी पड़ जाती है,” सहेली ने समझाया। 

“नहीं, रीता, बरूण को मैं अच्छी तरह से जानती हूँ। वह स्वार्थी नहीं है लेकिन . . .!”

“तीस साल पहले के बरूण और आज के बरूण में कोई अंतर नहीं होगा?” रीता ने प्रश्न किया। 

अपर्णा ने रीता के प्रश्न का जवाब नहीं दिया। 

“तुमने बरूण को कितनी बार फ़ोन किया? उसने क्या जवाब दिया?” रीता ने अपर्णा की आँखों में झाँकते हुए पूछा। 

“कई बार तो फ़ोन रिसीव ही नहीं किया। आज उम्मीद थी वह आएगा, सुबह फ़ोन पर उनसे बात हुई थी।”

“अरे अब तो शाम होने चली है, तुम्हारी वापसी की ट्रेन भी तो सात बजे है। उन्होंने यूँ ही तुम्हें आसरा दिया होगा,” रीता ने कहा। 

“नहीं सखी, मेरा मन मानने को तैयार नहीं। भले ही बरसों से उससे मुलाक़ात नहीं हुई है लेकिन उसकी सज्जनता, चेहरे की मुस्कान और रेडी टू हेल्प एटीट्यूड, मेरे ज़ेहन में आज भी छवि जैसी अंकित है। मेरा मन कहता है कोई विवशता होगी उसकी . . .।”

“सामान्य परिवार के बरूण को सरकारी नौकरी मिल गई होगी। जब हम लोग कॉलेज में पढ़ते थे वह कोचिंग और टाइपिंग का इंस्टीट्यूट चलाता था। पढ़ने में भी तेज़ था,” रीता ने कहा। 

“हाँ सखी, उनके पास ही मैंने टाइपिंग सीखी थी। मेरी आर्थिक स्थिति को देखते हुए कभी पूरी फ़ीस नहीं ली और बड़ी आत्मीयता से ज़िन्दगी में कुछ बड़ा करने की सलाह भी दी थी,”अपर्णा की बातों में कृतज्ञता थी। 

अचानक फ़ोन पर बरूण का मैसेज देख अपर्णा के चेहरे पर लाली दौड़ गई। 

“मैं मंदिर परिसर में बरगद के नीचे तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ,” बरूण का मैसेज था। 

अपर्णा अपनी सहेली के साथ बरगद के नीचे बरूण से मिलने पहुँच गई। 

“कितने कमज़ोर हो गए हो बरूण?” 

बरूण उठने की कोशिश की परन्तु लड़खड़ा गया। अपर्णा ने उसे पकड़कर बिठाया और कहा, “कितना कष्ट किया तुमने यहाँ तक आकर मुझसे मिलने के लिए? तुमने फ़ोन पर क्यों नहीं बताया। मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया।”

“नहीं री पगली। तुम आज भी उतनी ही संवेदनशील और ममता की मूर्ति हो जितनी वर्षों पहले थी। तुमसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई।”

“मैं माँ बिंदुवासिनी से प्रार्थना करती हूँ तुम जल्द ही ठीक हो जाओगे।”

“धन्यवाद अपर्णा। फिजियोथेरेपी से धीरे-धीरे ही सही बहुत सुधार हुआ है। पहले तो चल फिर भी नहीं सकता था।”

“ओह। तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे हैं? भाभी जी कैसी हैं?” 

“सभी अच्छे हैं। बड़ा बेटा जॉब में है। छोटा अभी एसएससी की तैयारी कर रहा है।

“अपर्णा, तुम दो एक दिन ठहर जाती तो . . .!”

“ठहर नहीं सकती बरूण। आज ही मेरी टिकट है वापसी की। फिर कभी आऊँगी तो तुम्हारे यहाँ ज़रूर आऊँगी।”

“ज़रूर। तुमसे मिलकर बहुत ख़ुशी मिली। बरसों बाद अपने शहर आई हो।”

“जी, बरूण लगभग तीस साल बाद। पुरानी यादें आज भी हरी हैं। बचपन के साथियों और स्नेही जनों से मुलाक़ात भी हो गई।”

“अपर्णा, फ़ोन पर बातें करते रहना। अपने पतिदेव को मेरा नमस्कार कहना। अब मैं धीरे-धीरे नीचे उतर जाता हूँ। पहाड़ी के नीचे रिक्शा वाला मेरा इंतज़ार कर रहा है।”

अपर्णा की आँखें भर आई थीं। 

“मैं कितनी ग़लत थी सखी!” बरूण के जाने के बाद रीता ने कहा। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

कविता

कविता - हाइकु

कविता - क्षणिका

अनूदित कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

कविता-मुक्तक

किशोर साहित्य लघुकथा

कहानी

सांस्कृतिक आलेख

ऐतिहासिक

रचना समीक्षा

ललित कला

कविता-सेदोका

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं