आँखें
कथा साहित्य | लघुकथा निर्मल कुमार दे15 Oct 2021 (अंक: 191, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
समिति के लोगों की चिंता बढ़ गई जब सुनने में आया कि मूर्तिकार अशौच के चलते दुर्गा प्रतिमा का स्पर्श नहीं करना चाहता है क्योंकि उसके परिवार में किसी बुज़ुर्ग की मृत्यु हो गई थी।
मूर्ति निर्माण का काम लगभग पूरा हो चुका था, सिर्फ़ दृष्टि दान करना बाक़ी था।
मूर्तिकार ने अपने भाँजे को बुलाया और उसे दृष्टि दान करने के लिए तैयार किया।
"मामा जी, समिति वाले . . . !"
"इसकी चिंता मत कर। समिति वालों को मैं मना लूँगा। तुमने तो कई बार मेरे साथ काम किया है। दृष्टिदान कर पाना आसान नहीं है। लेकिन भगवती का ध्यान कर हिम्मत से काम करना, सफल हो जाओगे," मूर्तिकार ने अपने भाँजे को समझाया।
समिति वालों की सहमति मिलने पर पर भाँजे को मूर्ति के दृष्टिदान हेतु भेजते हुए मूर्तिकार ने कहा, "बेटा, माँ की आँखें देखकर दुष्ट प्रकृति वाले दहल जाएँ और भक्त निरीह व्यक्तियों के मन में आस्था और भरोसा जगे।"
"जय माँ दुर्गा! मेरी लाज रखना," मामा से गुरुमंत्र लेकर भाँजा मूर्तियों का दृष्टि दान करने निकल पड़ा।
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पाण्डेय सरिता 2021/10/20 09:37 PM
बहुत खूब