कायर
काव्य साहित्य | कविता निर्मल कुमार दे15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
हाँ, मैं भी बदल चुका हूँ
उन्मादी भीड़ से डरा हुआ
एक पराजित शेर
कब तक
जीता रहूँ,
आँखों से नींद है ग़ायब
डर लग रहा है
कोई पत्थर
या बम
मेरे घर पर
नहीं आ गिरे,
सोचता हूँ
तिमिर पसंद लोगों से
उजाले की बात क्योंकर करूँ
शुतुरमुर्ग-सा
अपने को समेट लिया है;
मुझे मालूम है
इतिहास के पन्ने में
कायरों की सूची में
मेरा भी नाम होगा।
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