अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मित्रता

 

(पौराणिक कथा पर आधारित)

 

सुदामा ने पूजा-अर्चना करने के बाद पत्नी की ओर देखा। पत्नी को उदास देख पूछा, “क्या बात है सुशीला, कुछ उदास लग रही हो?” 

पत्नी बोली, “कुछ नहीं, प्रसाद ग्रहण कीजिए।”

पत्नी ने दो बतासे और पानी दिया। 

दोनों चारपाई पर बैठ बात करने लगे। 

पत्नी ने अपनी चिंता बताई, “देखो जी, आज चावल बिल्कुल नहीं है। बच्चों को क्या खिलाऊँगी? हम लोग एक दो दिन भूखे रह सकते हैं, पर बच्चे भूखे कैसे रहेंगे?” 

सुदामा निश्चिंत थे, “नारायण-नारायण! उनकी कृपा से कुछ न कुछ व्यवस्था हो जाएगी।”

पत्नी ने फिर कहा, “लेकिन इस तरह से कब तक चलेगा?” 

सुदामा शान्त थे, “मुझ जैसे ब्राह्मण के पास धन-दौलत कहाँ से आयेगी? पूजा पाठ से जो मिल जाए, उसीसे संतुष्ट होकर जीवन निर्वाह हो जाएगा, सुशीला।”

पत्नी उलहाना दिया, “आप तो यजमानों से अधिक कुछ माँगते भी नहीं। 

सुदामा चौंके, “नारायण-नारायण! क्या कहती हो, सुशीला। ब्राह्मण के लिए आत्मसम्मान से बड़ा कुछ नहीं। सांदीपनि ऋषि से मैंने यह सीखा कि ‘विद्वान निर्धन हो सकता है, पर दीन नहीं। भीख माँगने अथवा पारिश्रमिक से अधिक माँग करने से अनर्थ हो जाता है।”
पत्नी ने कहा, “ठीक है आर्यपुत्र! लेकिन एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानेंगे?” 
सुदामा ने पत्नी की ओर देखते हुए पूछा, “कहो सुशीला, क्या कहना चाहती हो? पत्नी की बात से मैं क्यों बुरा मानूँगा?” 

पत्नी कहना आरम्भ किया, “आपने जिस सांदीपनि ऋषि के आश्रम में ज्ञानार्जन किया वहाँ आपके सखा श्रीकृष्ण ने भी शिक्षा ग्रहण की। आप कहते भी हैं वे आपके परम मित्र हैं।”

सुदामा बोले, “बिल्कुल हैं। द्वारका के राजा श्री कृष्ण मेरे सहपाठी और परम मित्र हैं।”

सुशीला संशय प्रकट किया, “श्रीकृष्ण राजा और उनके मित्र रंक?” 

सुदामा ने समझाया, “मित्रता में छोटे बड़े राजा-रंक का भेद नहीं होता सुशीला। श्रीकृष्ण परम स्नेही हैं। मेरे सखा मेरे आदर्श हैं।”

सुशीला परामर्श दिया, “क्यों नहीं आप एक बार अपने मित्र से मिल आएँ! आपकी निर्धनता देख वे अवश्य कुछ देंगे आपको।”

सुदामा ने अपनी विवशता प्रकट की, “नारायण-नारायण!” कैसे उनसे कुछ माँगूँगा सुशीला? मैं अपने सखा की आँखों में गिर नहीं जाऊँगा?” 

पत्नी प्रोत्साहित किया, “आपको माँगने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी आर्यपुत्र! बरसों से आपके मित्र की कीर्ति की बातें सुनती आ रही हूँ। वे आपको निराश नहीं करेंगे। एक बार मित्र से मिल लेने में क्या हानि है। 
 बरसों बाद दो मित्र मिलेंगे कितनी प्रसन्नता होगी आप दोनों को।”

पत्नी की बातों से सुदामा को श्रीकृष्ण के साथ बिताये दिनों की यादें हरी हो गईं। 

“ठीक है सुशीला, तुम कह रही हो तो मैं जाऊँगा, लेकिन अपने दोस्त से बरसों बाद मिलूँगा तो . . . उनके लिए कुछ भेंट . . .!”

पत्नी ने बीच में ही टोकते हुए कहा, “आपके मित्र राजा और आप निर्धन ब्राह्मण! अपना प्रेम भाव देकर मित्र को प्रसन्न कर देंगे आप।”

सुदामा ने बड़े नम्र होकर कहा, “फिर भी कुछ . . . लेकर जाता तो सखा को प्रसन्नता होती।”

“ठीक है, मैं देखती हूँ,” सुशीला ने कहा और रसोई घर में प्रवेश किया। 

सुशीला ने देखा, भंडार में दो मुट्ठी चावल, और यजमान के घरों से मिला थोड़ा चूड़ा है। बाहर आकर बोली,
“आर्य पुत्र, आपके मित्र के लिए दो मुट्ठी चावल है। आप थोड़ा-सा चूड़ा खा लें और आज ही द्वारका के लिए प्रस्थान करें।”

“जानती हो सुशीला, आश्रम में श्रीकृष्ण मेरे हिस्से का कुछ चबैना और फल चुपके से खा जाता था,” सुदामा कहना चाहते थे पर कह नहीं पाए। 

भोजन करने के बाद सुदामा अपने मित्र की द्वारिकापुरी के लिए निकल पड़े। 
अक्षय तृतीया के दिन सुदामा द्वारिका पुरी पहुँचे। 

लम्बा रास्ता और कड़ी धूप, थकावट से सुदामा के चेहरे का रंग उतरा हुआ था। 

द्वारिका की साज-सज्जा देख सुदामा पहली बार अपनी दैन्य दशा को समझ पाए। 

द्वार पर एक निर्धन ब्राह्मण को देख द्वारपाल ने उनसे पूछा, “हे विप्र आप कौन हैं? आपका कैसे आना हुआ?” 

“श्रीकृष्ण मेरे गुरुभाई हैं। मैं उनसे मिलने आया हूँ। मेरा नाम सुदामा है,” सुदामा ने जवाब दिया। 

द्वारपाल सुदामा की बात सुनकर अचरज में पड़ गया। 

“ठीक है, आप ठहरिए! मैं भूपति श्रीकृष्ण को आपका संदेश देता हूँ।”

द्वारपाल से सुदामा का नाम सुनते ही श्रीकृष्ण नंगे पाँव अपने बचपन के मित्र से मिलने द्वार पर पहुँचे और सुदामा को गले लगा लिया। श्री कृष्ण की आँखों से प्रेम के आँसू झरझर बहने लगे। 

अपने मित्र को सम्मान के साथ राजगद्दी पर बैठाया। पत्नी रुक्मिणी के साथ स्वयं कृष्णजी ने सुदामा के पैर पखारे। सुदामा को फल-फूल, विभिन्न प्रकार के व्यंजन खिलाने के बाद घर-परिवार की कुशल क्षेम पूछा। 

हँसी-हँसी में श्रीकृष्ण ने पूछ ही लिया कि भाभी ने मेरे लिए क्या भेंट भेजी है। 

श्रीकृष्ण ने देख लिया था कि सुदामा एक पोटली अपने बग़ल में छुपा रखी है। 

स्वभाव से चंचल और विनोदी श्रीकृष्ण ने पोटली को एक तरह से छीनते हुए ले ली। 

श्रीकृष्ण समझ गए थे कि उनका मित्र लज्जा वश पोटली नहीं दे रहे हैं। 

“वाह भैया, भाभी ने मेरे लिए कितनी स्वादिष्ट भेंट भेजी हैं,” श्री कृष्ण ने कहा। 

“हाँ मित्र, तुम्हारी सुशीला भाभी साक्षात्‌ लक्ष्मी हैं।”

श्री कृष्ण ने सुशीला भाभी के लिए प्रणाम कहा। 

“भाई सुदामा, अब आप विश्राम कीजिए। मेरा सौभाग्य है कि आप आए,“श्री कृष्ण ने कहा। 

मित्र के जीर्ण-शीर्ण शरीर और विपन्न हालत को देख श्रीकृष्ण को बहुत कष्ट हुआ। 

सुदामा को बिन बताए श्रीकृष्ण ने अपने आदमी भेजकर सुदामा की झोपड़ी की जगह घर में सारी सुविधाओं से युक्त पत्नी तथा बच्चों के लिए सुंदर वस्त्र एवं आभूषण आदि की व्यवस्था के साथ भव्य भवन खड़ा करवा दिया। 

सुदामा की पत्नी सुशीला दोनों के मैत्री भाव और श्रीकृष्ण की महानता से अभिभूत हो गई। 

कुछ दिन ठहर कर सुदामा ने श्रीकृष्णजी से विदा लेकर घर के लिए प्रस्थान किया। 

रास्ते में सुदामा मित्र के वैभव और व्यवहार की मन ही मन प्रशंसा कर रहे थे। परन्तु लौटते समय श्रीकृष्णजी के द्वारा कुछ नहीं दिए जाने पर मन ही मन आश्चर्य कर रहे थे, और सोच रहे थे कि पत्नी सुशीला से क्या कहूँगा—मित्र ने रिक्त-हस्त लौटा दिया। 

गाँव पहुँचने पर अपनी झोपड़ी को न देख सुदामा को भारी चिंता हुई। झोपड़ी की जगह राजभवन खड़ा दिखाई दिया। कुछ देर बाद पत्नी सुशीला और बच्चों को सुंदर-सुंदर वस्त्रों और आभूषणों में देखकर सुदामा के चेतन मन में सारा रहस्य समझ में आ गया। 

सुशीला पति को आनंदपूर्वक भवन के अंदर ले गई। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 छोटा नहीं है कोई
|

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफ़ेसर…

अंतिम याचना
|

  शबरी की निर्निमेष प्रतीक्षा का छोर…

अंधा प्रेम
|

“प्रिय! तुम दुनिया की सबसे सुंदर औरत…

अपात्र दान 
|

  “मैंने कितनी बार मना किया है…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

सांस्कृतिक कथा

कविता - हाइकु

कविता

लघुकथा

कविता - क्षणिका

कविता-सेदोका

कविता-मुक्तक

अनूदित कविता

ललित निबन्ध

ऐतिहासिक

हास्य-व्यंग्य कविता

किशोर साहित्य लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

रचना समीक्षा

ललित कला

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं