महँगाई मार गई
कथा साहित्य | लघुकथा निर्मल कुमार दे15 Mar 2022 (अंक: 201, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
“बहू, अब मात्र दो ही बार चाय दिया करो सुबह-शाम,” प्रशांत बाबू ने कहा।
“क्यों बाबूजी, चाय में कटौती क्यों, आप नाराज़ तो नहीं?” बहू ने नम्रता से कहा।
“नहीं बेटा! तुमसे क्यों नाराज़गी, देखती नहीं महँगाई कितनी बढ़ गई है। चाय दूध चीनी तेल के साथ-साथ दवाई के दाम आसमान छूने लगे हैं।”
“सो तो देख रही हूँ बाबूजी, डीज़ल पेट्रोल के साथ-साथ गैस का दाम भी बढ़ गया,” बहू ने कहा।
“सब्जी का भाव भी तेज़ी पर है, हम मध्यम वित्त वर्गीय लोगों का जीना मुश्किल कर दिया इस महँगाई ने।”
“बाबूजी! इसीलिए मम्मी फिर लकड़ी और उपले का उपयोग करने पर ज़ोर डाल रही हैं। लेकिन मैं कैसे लकड़ी उपले का उपयोग करूँ बाबूजी? माँ को कोई तकलीफ़ नहीं होगी, पहले लकड़ी उपले का उपयोग कर चुकी हैं।”
“तुम ठीक कहती हो बेटा, लकड़ी उपले जलाने से पर्यावरण भी प्रदूषित होगा,”प्रशांत बाबू ने कहा।
“बाबूजी,! मैं चाहती हूँ बुटीक का काम मैं शुरू कर दूँ, थोड़ी-बहुत आय हो जायेगी, तो महँगाई को झेल लेंगे।”
प्रशांत बाबू ने सर हिलाकर हामी भर दी और मोबाइल पर “रोटी कपड़ा और मकान“ फ़िल्म का गाना “महँगाई मार गई” सर्च करने लगे।
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