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पहली पगार

“चलो जी, इस रविवार को जनकपुर घूम आते हैं।”

पति की बात से अचंभित पत्नी ने कहा, “सच? अचानक आपने कैसे प्लान बना लिया। मेरी भी इच्छा थी परंतु आपकी व्यस्तता को देखकर प्रगट नहीं कर पाई।”

“जानेमन! व्यस्तता अपनी जगह है लेकिन ख़ास मौक़े को भी नज़रअंदाज़ कैसे कर दूँ?” 

“मैं आपकी बात समझी नहीं?” 

“बाबूजी ने कभी कहा था तुम्हें कि पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती।”

“जी, बाबूजी ने गाँव समाज की परवाह न कर मुझे शहर में पढ़ने भेजा था। आज इसी पढ़ाई ने हमारी सारी मुश्किलें दूर कर दीं। कंपनी बंद हो जाने से कुछ महीने तक आप बेरोज़गार हो गए थे।”

“और तुमने परिवार की हालत बिगड़ने नहीं दी। तुमने लोकल स्कूल में ज्वाइन कर लिया। तुम्हारी शैक्षणिक योग्यता आड़े समय में काम आई।”

पत्नी चुपचाप पति का चेहरा देख रही थी।

“अपनी पहली पगार तुम अपने पिताजी को देना नहीं चाहोगी?” 

“मतलब?” 

“एक लड़का अपनी पहली पगार अपने माता-पिता को ज़रूर देता है।”

“तो क्या हुआ . . .?” 

“तुम बेटी हो, अपने माता-पिता के लिए किसी बेटे से कम तो नहीं। अपनी पहली पगार पिताजी को देकर एक नई मिसाल क़ायम करना। 

पत्नी की आँखें गीली हो गईं, ”आपकी स्नेहिल भावना देख मेरा जीवन सार्थक हो गया। लेकिन पिताजी पैसे नहीं लेंगे।”

“पहले चलो तो . . . एक बेटी के बाप के गर्व पर मुहर लगाने का दायित्व मेरा होगा।”

पत्नी के चेहरे में ख़ुशी झलकने लगी। 

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