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प्यासा पनघट

“क्या बात है पारो? कई दिनों से देखती हूँ तुम पनघट पर अकेली देर तक बैठी रहती हो? कोई राज़ की बात है क्या?” गाँव की मुँहबोली भाभी ने कहा। 

“नहीं भाभी यूँ ही . . .”

“अरे मुझसे क्यों छुपाती हो? मुझे मालूम है तुम राजेश की याद में खोई रहती है! तुम्हारा राजेश भी तो प्यासा पनघट की तरह तुम्हारी बाट जोहता होगा,” भाभी ने चुहलबाज़ी की। 

“भाभी! मेरा मन बड़ा शंकित हो चला है। कहीं राजेश शहर में जाकर मुझे भूल तो नहीं गया।”

“अरे राजेश ऐसा नहीं है। तुम्हें फ़ोन नहीं करता है क्या?” 

“भाभी! मेरा फ़ोन ख़राब हो गया है। क्या करूँ सोच नहीं पाती हूँ।”

पारो की डबडबाती आँखों को देख भाभी ने कहा, “राजेश का नंबर बता, अभी बात करते हैं।”

पारो ने नंबर दिया। 

“हेल्लो कौन?” 

राजेश की आवाज़ थी। 

“लो अपनी मंगेतर से बातें कर। तुम्हारी याद में सूखी जा रही है,” भाभी ने अपना फ़ोन पारो को देते हुए कहा। 

पारो और राजेश की बातें होती रही। पारो के चेहरे पर ख़ुशी देख भाभी को भी तसल्ली हुई। 

“कब आ रहे हो राजेश?” भाभी ने फ़ोन लेकर पूछा। 

“ओह भाभी आप भी न . . .!”

“अरे पनघट पर बैठ तेरी पारो प्यासी-प्यासी लगती है।”

“अगले ही रविवार को आ रहा हूँ भाभी। एक महीने की छुट्टी ले ली है,” राजेश ने कहा। 

“ठीक है, पारो बड़ी बेसब्री से तेरी बाट जोह रही है।”

लाज से पारो के चेहरे की रंगत बदल गई। 

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