प्रेम: एक शाश्वत भाव
आलेख | ललित निबन्ध निर्मल कुमार दे1 Mar 2025 (अंक: 272, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
सामने वेलेंटाइन डे है। अपने भारत में वसंत ऋतु मधुमास की ताज़गी और मादकता लिए हुए पूर्ण यौवन पर है। सामने होली भी है। लोगों, ख़ासकर युवक युवतियों के दिल में कविता की कोंपलें फूट रही हैं प्यार, आकर्षण और समर्पण की ख़ुश्बू के साथ।
अख़बारों, पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर प्रेम की कविताएँ ग़ज़ल और गीत ख़ूब लिखे जा रहे हैं।
क्या वे भी प्रेम की रूमानियत भरी कविता लिख सकते हैं जिनके प्रेमी या प्रेमिका नहीं हैं? मेरा मानना है कि वे भी प्रेम की ख़ूबसूरत कविता लिख सकते हैं जो कभी अपने प्रेम का इज़हार अपने प्रियतम या प्रियतमा के सामने नहीं कर पाए हैं।
फ़िल्मी दुनिया पर किसी ख़ास दृश्य या नायक अथवा नायिका के लिए प्रेम गीत लिखने को कहा जाता है तो गीतकार ख़ूबसूरत गीत लिख ही लेते हैं। वास्तव में हर इंसान के दिल में थोड़ी-बहुत रूमानियत होती है और सुंदरता के प्रति एक कमज़ोरी भी।
मैंने अपनी युवावस्था में ढेर सारी कविताएँ लिखी हैं। इनमें से अधिकतर शृंगार रस की हैं।
क्या शृंगार रस की कविताओं का कोई महत्त्व भी है? समाज की दशा और दिशा बदलने में क्या भूमिका है प्रणय गीतों की? ये प्रश्न कई बार मेरे मन में आए पर आज भी . . .!
आज जब सोशल मीडिया पर हर उम्र के क़लमकारों को प्रेम, परिणय मनुहार पर कविता लिखते हुए देखता हूँ तो मेरी भी क़लम मचल उठती है प्रेम पर रचना करने के लिए।
इस प्रेम पखवाड़े में मैंने भी कई कविताएँ लिखी हैं जिनमें रूमानियत है, विरह वेदना है, प्रेम की मधुर स्मृति है, कोमल अनुभूति है।
प्रस्तुत है एक नई रचना:
मनुहार
कहाँ भूला पाया हूँं तुम्हें
हर गुलाब में तुम्हीं नज़र आती हो।
हवा भी महकती है
तेरी जुल्फ़ों की ख़ुश्बू से।
दहकते पलाश को देख
तेरे होंठों का भरम हो जाता है
तुम्हें भूलने की कोशिश
नाकाम हो जाती है।
यादों में सिर्फ़ तुम ही तुम
बसती हो
ख़्वाबों में जब आती हो
अप्सरा-सी लगती हो।
न रहो रूठकर
मुझसे
क्यों कोयल-सी
दूर से चहकती हो?
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