तुम्हारा ख़त
काव्य साहित्य | कविता निर्मल कुमार दे1 Apr 2024 (अंक: 250, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
एक ख़त तुम्हारा
आज भी सहेज रखा है मैंने
हर शब्द में झलकता है तुम्हारा प्यार
ख़ुश्बू मिलती है तेरी ज़ुल्फ़ों की
अनायास सामने आ जाता है तुम्हारा चेहरा
तुम्हारी बड़ी-बड़ी आँखें
तुम्हारी मासूमियत, तुम्हारी नादानी
तुम्हारी सादगी
सभी प्रतिबिंबित हो जाती हैं
इस गुलाबी ख़त में।
कुछ भ्रम-सा है
यह मेरी नादानी भी
बरसों बीत गए
पर याद है कि
ज़ेहन में बिल्कुल ताज़ा है
भूल जाता हूँ कि
उम्र ठहरती नहीं
फिर भी एक
सुकून-सा देता है
तुम्हारा यह पत्र।
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