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डस्टबिन

 

“पिताजी, आपके बारे में ढेर सारी टिप्पणियाँ हैं,” बेटी ने कहा। 

“टिप्पणियांँ कैसी है, अच्छी या बुरी?” 

“अच्छी भी, बुरी भी; अच्छी टिप्पणियाँ ज़्यादा है, चार-पाँच बुरी टिप्पणियाँ।”

 “अच्छी टिप्पणियाँ अलग कर हमें दिखाओ, बुरी टिप्पणियों को अलग कर रखो; उसे पीछे देखूँगा।”

 “ऐसा क्यों पिताजी?” 

“अभी मैं सृजन-कर्म में हूँ जिसके लिए अच्छी टिप्पणी मिलती है। इन टिप्पणियों से मुझे और अधिक सृजन की प्रेरणा और ऊर्जा मिलती है। बुरी टिप्पणियों से तकलीफ़ मिलेगी, काम करने का उत्साह ठंडा पड़ जाएगा,” पिताजी ने कॉलेज में पढ़ रही बिटिया को समझाया। 

“तो क्यों नहीं बुरी टिप्पणियों को हटा दूँ?” बेटी ने पिता की राय जाननी चाही। 

“बेटी, मैं एक इंसान हूँ, भगवान नहीं। हो सकता है कुछ कमी मुझमें भी हो। आलोचना की अनदेखी भी नहीं कर सकता मैं। वस्तुपरक आलोचना का सम्मान करता हूँ और ईर्ष्या या जानकारी के अभाव में ग़लत आलोचना की निन्दा करता हूँ,” पिता ने बेटी को अच्छी तरह से समझाया। 

“वाह पिताजी! बहुत अच्छा नज़रिया है आपका। जो टिप्पणी ईर्ष्या के कारण की गई है उसको कहाँ रखूँ,” 
बेटी ने पूछा। 

पिता ने हँसते हुए कहा, “देखो डस्टबिन भी है!”

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टिप्पणियाँ

मधु शर्मा 2023/10/03 09:22 PM

सत्य वचन।एक लेखक सकारात्मक आलोचना पाकर स्वयं को जितना सुधार सकता है, सम्भवतः उतना वाह-वाही लूटकर कर नहीं।

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