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नख शिख वर्णन भ्रष्टाचार का

 

प्रचलित भाषा में इसे रिश्वत करप्शन या घूस लेना कहते हैं। सुशिक्षित जन इसे करप्शन तो कई इसे बहुधा टेबल के नीचे से ली जाने पर भी ऊपरी कमाई कहते हैं! कोई खुरचन, सुविधा शुल्क, तो कोई विटामिन, सेवा के बदले मेवा, तो कई इसे इनाम मानते हैं। इसके जितने पयार्यवाची अन्य किसी शब्द के नहीं हैं। 

कई इसे नजराना, शुक्राना या मेहनताना तक कहते हैं। इसे लाभांश या बोनस भी कहा जाता है। पहले अशर्फ़ियाँ या मोहरें तो अब नगद नारायण या सेवाओं के रूप में स्वीकार किया जाता है। झारखंड में बीस करोड़ की नगदी करप्शन रूपी रथ के नवीन सारथी सीए के यहाँ निकली थी। अभी तो भोजपाल नगरी में कार में पकड़ी करोड़ों की नगदी व 52 किलो सोना छाया हुआ है। इससे बड़ी खेप पकड़ने तक का ही इसका अस्तित्व है। 

इसका इतिहास बहुत प्राचीन है। इसके रूप-रंग व ढंग अलग-अलग हो सकते हैं पर मूल स्वरूप एक ही है। मुग़ल काल में भी यह मौजूद था। यह अँग्रेज़ों के काल में बहुत तेज़ी से बढ़ा। पर अमर बेल की तरह तो यह काले अँग्रेज़ों का राज होते ही हो गई। अब तो यह बेशर्म व गाजर घास को भी मात कर रहा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक कुछेक स्थानों पर बेशर्म व गाजर घास के दर्शन न हो पाएँ, लेकिन यह बेशर्मी से दर्शनीय है। यह बहुरूपिया है। वक़्त व ज़रूरत के हिसाब से रूप बदलता रहता हैं। किसी सुन्दरी के रूप के मायाजाल के माध्यम से भी इसे अंजाम दिया जा सकता है। घूस को पाप समझने वाले हुस्न की घूस के सामने अविलंब सरेंडर कर देते हैं! राजनेता की दो कौडी़ की पेंटिंग उद्योगपति करोड़ों में ख़रीद लेता है। वह केसीनो में लाखों करोड़ों आसानी से नेता अधिकारी के लिए हार जाता है। 

एक करप्ट अपने से ज़्यादा करप्ट को करप्ट कहते वक़्त अपने को पाक साफ़ मानता है! हमारे यहाँ दो श्रेणियाँ भ्रष्ट व अपने को ईमानदार कहने वालों की हैं, लेकिन दरअसल इन अभागों (हाँ ये अपने चारों ओर जम के कमाई कर रहे लोगों को देखकर ऐसा ही अनुभव करते हैं) को मौक़ा नहीं मिल पाया नहीं वे ऐसे चौके-छक्के लगाते कि सारे रिकार्ड टूट सबके छक्के छूट जाते। अब तो कई दो श्रेणियाँ—एक भ्रष्ट और दूसरे अतिभ्रष्ट—की ही मानते हैं! लेने व देने वाला सामने वाले का लिंग, जाति, धर्म, प्रांत, भाषा, सम्प्रदाय कभी नहीं देखता। अतः इससे बड़ा धर्म निरपेक्ष कोई दूसरा नहीं। 

इसने आम आदमी को ऐसा बेबस कर दिया है कि वह लेन-देन के शार्ट-कट को ईमानदारी के राजमार्ग से ज़्यादा सही मानने लगा है। इसलिए मध्यस्थ पनप गए। सरकारें बडे़-बडे़ वादों के साथ आयीं और चली गई। कोई आज तक ज़मीन की नपती, आरटीओ का लायसेंस, राशन कार्ड बिना लेन-देन के बनने की कोई माकूल व्यवस्था नहीं कर पाया। 

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