सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 6 : चोरी और प्रायश्चित
संस्मरण | आत्मकथा सुदर्शन कुमार सोनी1 Mar 2020 (अंक: 151, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
मांसाहार के समय के और उससे पहले के कुछ दोषों का वर्णन अभी रह गया है। ये दोष विवाह से पहले के अथवा उसके तुरंत बाद के हैं।
अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने को शौक़ लगा। हमारे पास पैसे नहीं थे। हम दोनों में से किसी का यह ख़याल तो नहीं था कि बीड़ी पीने में कोई फ़ायदा है, अथवा गंध में आनंद है। पर हमें लगा सिर्फ धुआँ उड़ाने में ही कुछ मज़ा है। मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। उन्हें और दूसरों को धुआँ उड़ाते देखकर हमें भी बीड़ी फूँकने की इच्छा हुई। गाँठ में पैसे तो थे नहीं, इसलिए काकाजी पीने के बाद बीड़ी के जो ठूँठ फेंक देते, हमने उन्हें चुराना शुरू किया।
पर बीड़ी के ये ठूँठ हर समय मिल नहीं सकते थे, और उनमें से बहुत धुआँ भी नहीं निकलता था। इसलिए नौकर की जेब में पड़े दो-चार पैसों में से हमने एकाध पैसा चुराने की आदत डाली और हम बीड़ी ख़रीदने लगे। पर सवाल यह पैदा हुआ कि उसे सँभाल कर रखें कहाँ। हम जानते थे कि बड़ों के देखते तो बीड़ी पी ही नहीं सकते। जैसे-तैसे दो-चार पैसे चुराकर कुछ हफ़्ते काम चलाया। इसी बीच सुना एक प्रकार का पौधा होता है जिसके डंठल बीड़ी की तरह जलते हैं और फूँके जा सकते हैं। हमने उन्हें प्राप्त किया और फूँकने लगे!
पर हमें संतोष नहीं हुआ। अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी। हमें दुख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हम ऊब गए और हमने आत्महत्या करने का निश्चय कर किया!
पर आत्महत्या कैसे करें, ज़हर कौन दे, हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु होती है। हम जंगल में जाकर बीज ले आए। शाम का समय तय किया। केदारनाथजी के मंदिर की दीपमाला में घी चढ़ाया, दर्शन किए और एकांत खोज लिया। पर ज़हर खाने की हिम्मत न हुई। अगर तुरंत ही मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए। फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक खाने की हिम्मत ही न पड़ी। दोनों मौत से डरे और यह निश्चय किया कि रामजी के मंदिर जाकर दर्शन करके शांत हो जाएँ और आत्महत्या की बात भूल जाएँ।
मेरी समझ में आया कि आत्महत्या का विचार करना सरल है। आत्महत्या करना सरल नहीं। इसलिए कोई आत्महत्या करने का धमकी देता है, तो मुझ पर उसका बहुत कम असर होता है अथवा यह कहना ठीक होगा कि कोई असर हो ही नहीं।
आत्महत्या के इस विचार का परिणाम यह हुआ कि हम दोनों जूठी बीड़ी चुराकर पीने की और नौकर के पैसे चुराकर पैसे बीड़ी ख़रीदने और फूँकने की आदत भूल गए। फिर कभी बड़ेपन में पीने की कभी इच्छा नहीं हुई। मैंने हमेशा यह माना है कि यह आदत जंगली, गंदी और हानिकारक है। दुनिया में बीड़ी का इतना ज़बरदस्त शौक़ क्यों है, इसे मैं कभी समझ नहीं सका हूँ। रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में बहुत बीड़ी पी जाती है, वहाँ बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है और धुँए से मेरा दम घुटने लगता है।
बीड़ी के ठूँठ चुराने और इसी सिलसिले में नौकर के पैसे चुराने के दोष की तुलना में मुझसे चोरी का दूसरा जो दोष हुआ उसे मैं अधिक गंभीर मानता हूँ। बीड़ी के दोष के समय मेरी उमर बारह तेरह साल की रही होगी, शायद इससे कम भी हो। दूसरी चोरी के समय मेरी उमर पंद्रह साल की रही होगी। यह चोरी मेरे मांसाहारी भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी। उन पर मामूली सा लगभग पच्चीस रुपए का कर्ज़ हो गया था। उसकी अदायगी के बारे हम दोनों भाई सोच रहे थे। मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस कड़ा था। उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था।
कड़ा कटा। कर्ज़ अदा हुआ। पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गई। मैंने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करूँगा ही नहीं। मुझे लगा कि पिताजी के सम्मुख अपना दोष स्वीकार भी कर लेना चाहिए। पर जीभ न खुली। पिताजी स्वयं मुझे पीटेंगे इसका डर तो था ही नहीं। मुझे याद नहीं पड़ता कभी हममें से किसी भाई को पीटा हो। पर खुद दुखी होंगे, शायद सिर फोड़ लें। मैंने सोचा कि यह जोख़िम उठाकर भी दोष क़बूल कर लेना चाहिए, उसके बिना शुद्धि नहीं होगी।
आख़िर मैंने तय किया कि चिट्ठी लिख कर दोष स्वीकार किया जाए और क्षमा माँग ली जाए। मैंने चिट्ठी लिखकर हाथों हाथ दी। चिट्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सज़ा चाही। आग्रहपूर्वक विनती की कि वे अपने को दुख में न डालें और भविष्य में फिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की।
मैंने काँपते हाथों चिट्ठी पिताजी के हाथ में दी। मैं उनके तख्त के सामने बैठ गया। उन दिनों वे भगंदर की बीमारी से पीड़ित थे। इस कारण बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। खटिया के बदले लकड़ी का तख्त काम में लाते थे।
उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आँखों से मोती की बूँदें टपकीं। चिट्ठी भीग गई। उन्होंने क्षण भर के लिए आँखें मूँदीं , चिट्ठी फाड़ डाली और स्वयं पढ़ने के लिए उठ बैठे थे। सो वापस लेट गए।
मैं भी रोया। पिताजी का दुख समझ सका। अगर मैं चित्रकार होता तो वह चित्र आज भी संपूर्णता से खींच सकता। आज भी वह मेरी आँखों के सामने इतना स्पष्ट है।
मोती की बूँदों के उस प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध बना। इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता है।
रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे।
(राम की भक्ति का बाण जिसे लगा हो वही जान सकता है।)
मेरे लिए यह अहिंसा का पदार्थपाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा, पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूँ। ऐसी अहिंसा के व्यापक रूप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता है, ऐसी व्यापक अहिंसा की शक्ति की थाह लेना असंभव है।
इस प्रकार की शांत क्षमा पिताजी के स्वभाव के विरुद्ध थी। मैंने सोचा था कि वे क्रोध करेंगे कटु वचन कहेंगे शायद अपना सिर पीट लेंगे। पर उन्होंने इतनी अपार शांति जो धारण की मेरे विचार में उसका कारण अपराध की सरल स्वीकृति थी। जो मनुष्य अधिकारी के सम्मुख स्वेच्छा से और निष्कपट भाव से अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और फिर कभी वैसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह शुद्धतम प्रायश्चित्त करता है।
मैं जानता हूँ कि मेरी इस स्वीकृति से पिताजी मेरे विषय में निर्भय बने और उनका महान प्रेम और भी बढ़ गया।
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टिप्पणियाँ
Suresh dhurwey 2023/08/23 08:27 PM
Sir sahiteya kunaj kya hota hai is aa very good lien please mai questions ka answer do
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