अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सूअर दिल इंसान से गंगाधर की एक अर्ज

अलसुबह रोज़ मैं अपने डॉगी को घुमाने ले जाता हूँ। माफ़ कीजियेगा घुमाने नहीं सूँघाने ले जाता हूँ। दरअसल मालिक को यह ग़लतफ़हमी होती है कि वह कुत्ते को घुमा रहा है। कुत्ता घूमने नहीं सूँघने जाता है। तभी तो मालिक नहीं कुत्ता उसे घुमाता है। उसे जहाँ सूँघने का स्कोप मिलता है वहाँ-वहाँ मालिक को घसीटता सा ले जाता है। 

दरअसल हम डॉगी नहीं सूअर जी की बात आज करना चाह रहे हैं जिसको देख कर ही लोग नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं। ’जी’ क्यों लगाया जल्दी ही आपको पता चल जायेगा। मेरे इस मोहल्ले में मुँह अँधेरे सूअर कुनबा अपने नाश्ते-पानी की तलाश में निकला होता है। श्वानों को पर बिल्कुल भी नहीं भाता है कि सूअर कुनबा उनके इलाक़े में विचरण करे। कुत्ते व इंसान दोनों में कुत्तापन बरोबर मात्रा में होता है। ये सड़क छाप कुत्ते जो दूसरों पर भोजन-पानी के लिये आश्रित हैं, वे सिर ऊपर कर नीचे सिर किये अपने कार्य में तल्लीन सूअर कुनबे पर तबियत से भौंकते हैं; उसे खदेड़ते हैं। लेकिन सूअर आख़िर कुत्तों के इस कुत्तापन पर करे तो करे क्या? आख़िर अपने कुनबे का पेट जो पालना है। इंसान को भी तो अपने से ताक़तवर के ऐसे ही कुत्तापन का चाहे जब शिकार होना पड़ता है। गाँव में चाहे वह दलित वर्ग के दूल्हे की घोड़ी पर जा रही बारात को रोककर उसको घोडे़ पर से उतरने के लिए मजबूर कर देना हो या कुएँ से पानी भरने पर किसी वंचित वर्ग के आदमी की पिटाई कर देना हो। 

लेकिन आज तो पता नहीं क्या बात थी कि इन बेघर सूअरों में ग़ज़ब का आत्मविश्वास घर कर गया था। वे कुत्तों से दो-दो हाथ करने तैयार थे। श्वानों के भौंकने पर सूअर माँ-बाप ताल ठोक कर जैसे एक ही जगह पर खडे़ हो जाते थे। यह सूअर कुनबा रंगभेद के विरोध का उम्दा ब्रांड एम्बेसडर था। तीन बच्चे काले तो तीन सफेद-भूरे। 

पर यह सूअरों के आत्मविश्वास के पीछे का रहस्य घर को लौटकर अख़बार ’सुबह सवेरे’ अलसुबह पढ़ते ही सामने आ गया। दरअसल अमेरिका में डॉक्टरों ने बहुत दिनों से हार्ट-लंग मशीन के दम पर दम साधे एक मरीज़ को सूअर का दिल लगाकर उसे स्थायी दम फूलने से बचा लिया था। यह व्यक्ति भी ख़ुश था सूअर का दिल लगने से। हाँ, उसने यह ज़रूर कहा कि वह कहीं कोई अजीब हरकत न करने लगे। यही न्यूज़ शायद सूअर कुनबे के आत्मविश्वास का कारण थी कि वो आदमी के काम इस तरह से भी आया। आज से किसी को ’सूअर कहीं के’ या ’सूअर के बच्चे’ कहना ठीक नहीं होगा। सूअर शब्द बहुत ज़ुबां पर आ रहा हो तो ’सूअर दिल कहीं के’ कह काम चला लेना। इसे सूअर भी बुरा नहीं मानेगा। 

सूअर तो चाह रहा है कि उसे सदैव सूअर के भाव से देखने वालों का उसके हृदय के प्रत्यारोपण के बहाने ही हृदय परिवर्तन हो जाये तो उसके जीवन का यह प्रथम शुभ-लाभ दिवस होगा। 

गंगाधर ने इस प्रयोग के बाद तो उन चीज़ों के बारे में जिन्हें हम बुरा या हीन समझते हैं धारणा ही बदल दी है कि कहीं एक दिन वही जीवनदायिनी न बन जाये। 

कल्पना कीजिये आज से बीस-तीस साल बाद जब यह प्रयोग सफल होकर आम हो जायेगा तब किसी इंसान के दिल के प्रत्यारोपण की बात पर एक अदद सूअर के अदद दिल की ओर ही ताका जायेगा। 

ये तो अभी शुरूआत है न कहो कल सूअर का पेन्क्रिआस, फेफडे़, किडनी आदि भी इंसान के शरीर में रमने लगें। तब सूअर हमारे लिये कितना महान होगा। लिखते-लिखते यह समाचार भी आ गया है कि अमेरिका के अलबामा में ही एक व्यक्ति को जेनेटिकली मॉडीफ़ाईड सूअर की किडनी लगाने पर 23 मिनट बाद ही उसने कार्य करना यानी मूत्र बनाना शुरू कर दिया। 72 घंटे जब तक यह प्रयोग चला यह किडनी अच्छे से काम करती रही। दुनियावी व्यवस्था का यह कुत्तापन ही कहा जायेगा कि कोलकाता के जिस डॉक्टर ने कई दशक पहले सूअर के दिल का सफल प्रत्यारोपण एक इंसान पर किया था उसे जेल में चालीस दिन सड़ना पड़ा था। और आज इसी बात पर अमेरिकी डॉक्टर सुर्खियाँ बटोर रहे हैं। 

पर एक बात है कि इंसान जीनो-ट्रांसप्लांटेशन की इस नवीनतम तकनीक से जानवरों के नाना अंगों का तो अपने अंगों के बदले जुगाड़ जमाते जा रहा है। पर वह जानवरों के ख़राब हो चुके अंगों के लिये अपने ब्रेन डेड साथियों के अंगों के प्रत्यारोपण के बारे में कब सोचेगा?

इंसान से एक विशेष अर्ज गंगाधर की है कि वह भविष्य में सूअरों के अंगों के अवैध व्यापार जैसे कुत्तई कार्य में लिप्त नहीं होगा। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

आत्मकथा

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. आरोहण
  2. अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो