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सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 5 : दुखद प्रसंग

दुखद प्रसंग - 1

मैं कह चुका हूँ कि हाईस्कूल में मेरे थोड़े ही विश्वासपात्र मित्र थे। कहा जा सकता है कि ऐसी मित्रता रखनेवाले दो मित्र अलग-अलग समय में रहे। एक का संबंध लंबे समय तक नहीं टिका, यद्यपि मैंने मित्र को छोड़ा नहीं था। मैंने दूसरी सोहबत की, इसलिए पहले ने मुझे छोड़ दिया। दूसरी सोहबत मेरे जीवन का एक दुखद प्रकरण है। यह सोहबत बहुत वर्षों तक रही। इस सोहबत को निभाने में मेरी दृष्टि सुधारक की थी। इन भाई की पहली मित्रता मेरे मँझले भाई के साथ थी। वे मेरे भाई की कक्षा में थे। उनके कई दोष होने के बाद भी मैंने उन्हें वफ़ादार मान लिया था। मेरी माताजी, मेरे जेठे भाई और मेरी धर्मपत्नी तीनों को यह सोहबत कड़वी लगती थी। पत्नी की चेतावनी को तो मैं अभिमानी पति क्यों मानने लगा? माता की आज्ञा का उल्लंघन मैं करता ही न था। बड़े भाई की बात मैं हमेशा सुनता था। पर उन्हें मैंने यह कह कर शांत किया: ‘उसके जो दोष आप बताते है, उन्हें मैं जानता हूँ। उसके गुण तो आप जानते ही नहीं। वह मुझे ग़लत रास्ते नहीं ले जाएगा, क्योंकि उसके साथ मेरा संबंध उसे सुधारने के लिए ही है। मुझे यह विश्वास है कि अगर वह सुधर जाए, तो बहुत अच्छा आदमी निकलेगा। मैं चाहता हूँ कि आप मेरे विषय में निर्भय रहें।‘ मैं नहीं मानता कि मेरी इस बात से उन्हें संतोष हुआ, पर उन्होंने मुझ पर विश्वास किया और मुझे मेरे रास्ते जाने दिया।

बाद में मैं देख सका कि मेरा अनुमान ठीक नहीं था। सुधार करने के लिए भी मनुष्य को गहरे पानी में नहीं पैठना चाहिए। जिसे सुधारना है उसके साथ मित्रता नहीं हो सकती। मित्रता में अद्वैत-भाव होता है। मित्रता समान गुणवालों के बीच शोभती और निभती है। मित्र एक-दूसरे को प्रभावित किए बिना रह ही नहीं सकते। अतएव मित्रता में सुधार के लिए बहुत अवकाश रहता है। मेरी राय है कि घनिष्ठ मित्रता अनिष्ट है, क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता है। गुण ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता है। जो आत्मा की, ईश्वर की मित्रता चाहता है, उसे एकाकी रहना चाहिए, अथवा समूचे संसार के साथ मित्रता रखनी चाहिए। ऊपर का विचार योग्य हो अथवा अयोग्य, घनिष्ठ मित्रता बढ़ाने का मेरा प्रयोग निष्फल रहा।

जिन दिनों मैं इन मित्र के संपर्क में आया, उन दिनों राजकोट में सुधारपंथ का ज़ोर था। मुझे इन मित्र ने बताया कि कई हिंदू शिक्षक व विद्यार्थी छिपे-छिपे मांसाहार और मद्यपान करते हैं। उन्होंने राजकोट के दूसरे प्रसिद्ध गृहस्थों के नाम भी दिए। मुझे तो आश्चर्य हुआ और दुख भी। कारण पूछने पर यह दलील दी गई: ‘हम मांसाहार नहीं करते इसलिए प्रजा के रूप में हम निर्वीर्य है। अँग्रज़ हम पर इसलिए राज्य करते हैं कि वे मांसाहारी हैं। मैं कितना मज़बूत हूँ और कितना दौड़ सकता हूँ, सो तो तुम जानते ही हो। इसका कारण मांसाहार ही है। मांसाहारी को फोड़े नहीं होते, होने पर झट अच्छे हो जाते है। हमारे शिक्षक मांस खाते हैं। इतने प्रसिद्ध व्यक्ति खाते हैं? सो क्या बिना समझे खाते हैं? तुम्हें भी खाना चाहिए। खाकर देखो कि तुममें कितनी ताक़त आ जाती है।‘

ये सब दलीलें किसी एक दिन नहीं दी गई थीं। अनेक उदाहरणों से सजाकर इस तरह की दलीलें कई बार दी गईं। मेरे मँझले भाई तो भ्रष्ट हो चुके थे। उन्होंने इन दलीलों की पुष्टि की। अपने भाई की तुलना में मैं तो बहुत दुबला था। उनके शरीर अधिक गठीले थे। उनका शारीरिक बल मुझसे कहीं ज़्यादा था। वे हिम्मतवर थे। इन मित्र के पराक्रम मुझे मुग्ध कर देते थे। वे मनचाहा दौड़ सकते थे। उनकी गति बहुत अच्छी थी। वे ख़ूब लंबा और ऊँचा कूद सकते थे। मार सहन करने की शक्ति भी उनमें ख़ूब थी। अपनी इस शक्ति का प्रदर्शन भी वे मेरे सामने समय-समय पर करते थे। जो शक्ति अपने में नहीं होती, उसे दूसरों में देखकर मनुष्य को आश्चर्य होता ही है। मुझमें दौड़ने-कूदने की शक्ति नहीं के बराबर थी। मैं सोचा करता कि मैं भी बलवान बन जाऊँ, तो कितना अच्छा हो!

इसके अलावा मैं डरपोक था। चोर, भूत, साँप आदि के डर से घिरा रहता था। ये डर मुझे हैरान भी करते थे। रात कहीं अकेले जाने की हिम्मत नहीं थी। अँधेरे में तो कहीं जाता ही न था। दीये के बिना सोना लगभग असंभव था। कहीं इधर से भूत न आ जाए, उधर से चोर न आ जाए और तीसरी जगह से साँप न निकल आए! इसलिए बत्ती की ज़रूरत तो रहती ही थी। पास में सोई हुई और अब कुछ सयानी बनी हुई पत्नी से भी अपने इस डर की बात मैं कैसे करता? मैं यह समझ चुका था कि वह मुझसे ज़्यादा हिम्मतवाली है और इसलिए मैं शरमाता था। साँप आदि से डरना तो वह जानती ही न थी। अँधेरे में वह अकेली चली जाती थी। मेरे ये मित्र मेरी इन कमज़ोरियों को जानते थे। मुझसे कहा करते थे कि वे तो ज़िंदा साँपों को भी हाथ से पकड़ लेते थे। चोर से कभी नहीं डरते। भूत को तो मानते ही नहीं। उन्होंने मुझे जँचाया कि यह प्रताप मांसाहार का है।

इन्हीं दिनों नर्मद (गुजराती के प्रसिद्ध कवि, 1833-86) का नीचे लिखा पद स्कूलों में गाया जाता था:

अंग्रेजो राज्य करे, देशी रहे दबाई
देशी रहे दबाई, जोने बेनां शरीर भाई।
पेलो पाँच हाथ पूरो, पूरो पाँच सेनें॥

(अँग्रेज़ राज्य करते हैं और हिंदुस्तानी दबे रहते हैं। दोनों के शरीर तो देखो। वे पूरे पाँच हाथ के है। एक एक पाँच सौ के लिए काफ़ी है।)

इन सब बातों का मेरे मन पर पूरा-पूरा असर हुआ। मैं पिघला। मैं यह मानने लगा कि मांसाहार अच्छी चीज़ है। उससे मैं बलवान और साहसी बनूँगा। समूचा देश मांसाहार करे, तो अँग्रेज़ों को हराया जा सकता है। मांसाहार शुरू करने का दिन निश्चित हुआ। इस निश्चय - इस आरंभ का अर्थ सब पाठक समझ नहीं सकेंगे। गाँधी परिवार वैष्णव संप्रदाय का है। माता-पिता बहुत कट्टर वैष्णव माने जाते थे। हवेली (वैष्णव-मंदिर) में हमेशा जाते थे। कुछ मंदिर तो परिवार के ही माने जाते थे। फिर गुजरात में जैन संप्रदाय का बड़ा ज़ोर है। उसका प्रभाव हर जगह, हर काम में पाया जाता है। इसलिए मांसाहार का जैसा विरोध और तिरस्कार गुजरात में और श्रावकों तथा वैष्णवों में पाया जाता है, वैसा हिंदुस्तान या दुनिया में और कहीं नहीं पाया जाता। ये मेरे संस्कार थे।

मैं माता-पिता का परम भक्त था। मैं मानता था कि वे मेरे मांसाहार की बात जानेंगे तो बिना मौत के उनकी तत्काल मृत्यु हो जाएगी। जाने-अनजाने मैं सत्य का सेवक तो था ही। मैं ऐसा नहीं कह सकता कि उस समय मुझे यह ज्ञान न था कि मांसाहार करने में माता-पिता को धोखा देना होगा।

ऐसी हालत में मांसाहार करने का मेरा निश्चय मेरे लिए बहुत गंभीर और भयंकर बात थी।

लेकिन मुझे तो सुधार करना था। मांसाहार का शौक़ नहीं था। यह सोचकर कि उसमें स्वाद है, मैं मांसाहार शुरू नहीं कर रहा था। मुझे तो बलवान और साहसी बनना था, दूसरों को वैसा बनने के लिए न्योतना था, फिर अँग्रेज़ों को हराकर हिंदुस्तान को स्वतंत्र करना था। स्वराज शब्द उस समय मैंने सुना नहीं था। सुधार के इस जोश में मैं होश भूल गया।

दुखद प्रसंग - 2

निश्चित दिन आया। अपनी स्थिति का संपूर्ण वर्णन करना मेरे लिए कठिन है। एक तरफ़ सुधार का उत्साह था, जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने का कुतूहल था, और दूसरी ओर चोर की तरह छिपकर काम करने की शरम थी। मुझे याद नहीं पड़ता कि इसमें मुख्य वस्तु क्या थी। हम नदी की तरफ़ एकांत की खोज में चले। दूर जाकर ऐसा कोना खोजा, जहाँ कोई देख न सके और कभी न देखी हुई वस्तु - मांस - देखी! साथ में भटियारखाने की डबल रोटी थी। दोनों में से एक भी चीज़ मुझे भाती नहीं थी। मांस चमड़े-जैसा लगता था। खाना असंभव हो गया। मुझे कै होने लगी। खाना छोड़ देना पड़ा। मेरी वह रात बहुत बुरी बीती। नींद नहीं आई। सपने में ऐसा भास होता था, मानो शरीर के अंदर बकरा ज़िंदा हो और रो रहा है। मैं चौंक उठता, पछताता और फिर सोचता कि मुझे तो मांसाहार करना ही है, हिम्मत नहीं हारनी है! मित्र भी हार खानेवाले नहीं थे। उन्होंने अब मांस को अलग-अलग ढंग से पकाने, सजाने और ढँकने का प्रबंध किया।

नदी किनारे ले जाने के बदले किसी बावरची के साथ बातचीत करके छिपे-छिपे एक सरकारी डाक-बँगले पर ले जाने की व्यवस्था की और वहाँ कुर्सी, मेज़ वग़ैरह सामान के प्रलोभन में मुझे डाला। इसका असर हुआ। डबल रोटी की नफ़रत कुछ कम पड़ी, बकरे की दया छूटी और मांस का तो कह नहीं सकता, पर मांसवाले पदार्थों में स्वाद आने लगा। इस तरह एक साल बीता होगा और इस बीच पाँच-छह बार मांस खाने को मिला होगा, क्योंकि डाक-बँगला सदा सुलभ न रहता था और मांस के स्वादिष्ट माने जानेवाले बढ़िया पदार्थ भी सदा तैयार नहीं हो सकते थे। फिर ऐसे भोजनों पर पैसा भी ख़र्च होता था। मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी, इसलिए मैं कुछ दे नहीं सकता था। इस ख़र्च की व्यवस्था उन मित्रों को ही करनी होती थी, कैसे व्यवस्था की, इसका मुझे आज तक पता नहीं है। उनका इरादा तो मुझे मांस की आदत लगा देने का - भ्रष्ट करने का - था, इसलिए वे अपना पैसा ख़र्च करते थे। पर उनके पास भी कोई अखूट ख़ज़ाना नहीं था, इसलिए ऐसी दावतें कभी-कभी ही हो सकतीं थीं।

जब-जब ऐसा भोजन मिलता, तब-तब घर पर तो भोजन हो ही नहीं सकता था। जब माताजी भोजन के लिए बुलातीं, तब ‘आज भूख नहीं है, खाना हज़म नहीं हुआ है‘ ऐसे बहाने बनाने पड़ते थे। ऐसा कहते समय हर बार मुझे भारी आघात पहुँचता था। यह झूठ, सो भी माँ के सामने! और अगर माता-पिता को पता चले कि लड़के मांसाहारी हो गए हैं तब तो उन पर बिजली ही टूट पड़ेगी। ये विचार मेरे दिल को कुरेदते रहते थे, इसलिए मैंने निश्चय किया: ‘मांस खाना आवश्यक है, उसका प्रचार करके हम हिंदुस्तान को सुधारेंगे पर माता-पिता को धोखा देना और झूठ बोलना तो मांस न खाने से भी बुरा है। इसलिए माता-पिता के जीते जी मांस नहीं खाना चाहिए। उनकी मृत्यु के बाद, स्वतंत्र होने पर खुले तौर से मांस खाना चाहिए और जब तक वह समय न आवे, तब तक मांसाहार का त्याग करना चाहिए।‘ अपना यह निश्चय मैंने मित्र को जता दिया, और तब से मांसाहार जो छूटा, सो सदा के छूटा। माता-पिता कभी यह जान ही न पाए की उनके दो पुत्र मांसाहार कर चुके है।

माता-पिता को धोखा न देने के शुभ विचार से मैंने मांसाहार छोड़ा, पर वह मित्रता नहीं छोड़ी। मैं मित्र को सुधारने चला था, पर ख़ुद ही गिरा, और गिरावट का मुझे होश तक न रहा।

इसी सोहबत के कारण मैं व्यभिचार में भी फँस जाता। एक बार मेरे ये मित्र मुझे वेश्याओं की बस्ती में ले गए। वहाँ मुझे योग्य सूचनाएँ देकर एक स्त्री के मकान में भेजा। मुझे उसे पैसे वग़ैरह कुछ देना नहीं था। हिसाब हो चुका था। मुझे तो सिर्फ़ दिल-बहलाव की बातें करनी थी। मैं घर में घुस तो गया, पर जिसे ईश्वर बचाता है, वह गिरने की इच्छा रखते हुए भी पवित्र रह सकता है। उस कोठरी में मैं तो अंधा बन गया। मुझे बोलने का भी होश न रहा। मारे शरम के सन्नाटे में आकर उस औरत के पास खटिया पर बैठा, पर मुँह से बोल न निकल सका। औरत ने ग़ुस्से में आकर मुझे दो-चार खरी-खोटी सुनाई और दरवाज़े की राह दिखाई।

उस समय तो मुझे जान पड़ा कि मेरी मर्दानगी को बट्टा लगा और मैंने चाहा कि धरती जगह दे तो मैं उसमे समा जाऊँ। पर इस तरह बचने के लिए मैंने सदा ही भगवान का आभार माना है। मेरे जीवन में ऐसे ही दूसरे चार प्रसंग और आए हैं। कहना होगा कि उनमें से अनेकों में, अपने प्रयत्न के बिना, केवल परिस्थिति के कारण मैं बचा हूँ। विशुद्ध दृष्टि से तो इन प्रसंगों में मेरा पतन ही माना जाएगा। चूँकि विषय की इच्छा की, इसलिए मैं उसे भोग ही चुका। फिर भी लौकिक दृष्टि से, इच्छा करने पर भी जो प्रत्यक्ष कर्म से बचता है, उसे हम बचा हुआ मानते हैं और इन प्रसंगों में मैं इसी तरह, इतनी ही हद तक, बचा हुआ माना जाऊँगा। फिर कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हें करने से बचना व्यक्ति के लिए और उसके संपर्क में आनेवालों के लिए बहुत लाभदायक होता है, और जब विचार शुद्धि हो जाती है तब उस कार्य में से बच जाने कि लिए वह ईश्वर का अनुगृहीत होता है। जिस तरह हम यह अनुभव करते हैं कि पतन से बचने का प्रयत्न करते हुए भी मनुष्य पतित बनता है, उसी तरह यह भी एक अनुभव-सिद्ध बात है कि गिरना चाहते हुए भी अनेक संयोगों के कारण मनुष्य गिरने से बच जाता है। इसमें पुरुषार्थ कहाँ है, दैव कहाँ है, अथवा किन नियमों के वश होकर मनुष्य आखिर गिरता या बचता है, ये सारे गूढ़ प्रश्न हैं।

पर हम आगे बढ़े। मुझे अभी तक इस बात का होश नहीं हुआ कि इन मित्र की मित्रता अनिष्ट है। वैसा होने से पहले मुझे अभी कुछ और कड़वे अनुभव प्राप्त करने थे। इसका बोध तो मुझे तभी हुआ जब मैंने उनके अकल्पित दोषों का प्रत्यक्ष दर्शन किया। लेकिन मैं यथासंभव समय के क्रम के अनुसार अपने अनुभव लिख रहा हूँ, इसलिए दूसरे अनुभव आगे आवेंगे।

इस समय की एक बात यहीं कहनी होगी। हम दंपती के बीच जो जो कुछ मतभेद या कलह होता, उसका कारण यह मित्रता भी थी। मैं ऊपर बता चुका हूँ कि मैं जैसा प्रेमी था वैसा ही वहमी पति था। मेरे वहम को बढ़ानेवाली यह मित्रता थी, क्योंकि मित्र की सच्चाई के बारे में मुझे कोई संदेह था ही नहीं। इन मित्र की बातों में आकर मैंने अपनी धर्मपत्नी को कितने ही कष्ट पहुँचाए। इस हिंसा के लिए मैंने अपने को कभी माफ़ नहीं किया है। ऐसे दुख हिंदू स्त्री ही सहन करती है, और इस कारण मैंने स्त्री को सदा सहनशीलता की मूर्ति के रूप में देखा है। नौकर पर झूठा शक किया जाय तो वह नौकरी छोड़ देता है, पुत्र पर ऐसा शक हो तो वह पिता का घर छोड़ देता है, मित्रों के बीच शक पैदा हो तो मित्रता टूट जाती है, स्त्री को पति पर शक हो तो वह मन मसोस कर बैठी रहती है, पर अगर पति पत्नी पर शक करे तो पत्नी बेचारी का भाग्य ही फूट जाता है। वह कहाँ जाए? उच्च माने जानेवाले वर्ण की हिंदू स्त्री अदालत में जाकर बँधी हुई गाँठ को कटवा भी नहीं सकती, ऐसा एकतरफ़ा न्याय उसके लिए रखा गया है। इस तरह का न्याय मैंने दिया, इसके दुख को मैं कभी नहीं भूल सकता। इस संदेह की जड़ तो तभी कटी जब मुझे अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ, यानी जब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा और यह समझा कि पत्नी पति की दासी नहीं, पर उसकी सहचारिणी है, सहधर्मिणी है, दोनों एक दूसरे के सुख-दुख के समान साझेदार है, और भला-बुरा करने की जितनी स्वतंत्रता पति को है उतनी ही पत्नी को है। संदेह के उस काल को जब मैं याद करता हूँ तो मुझे अपनी मूर्खता और विषयांध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता-विषयक अपनी मूर्छा पर दया आती है।

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