मल्टीप्लेक्स और लुप्तप्रायः होता राष्ट्रीय चरित्र
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुदर्शन कुमार सोनी15 Feb 2021 (अंक: 175, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
वो समय दूर नहीं जबकि पुराने छविगृहों की बस जेहन में एक छवि ही रह जायेगी। एक-एक करके सारी टॉकीजें बंद हो गयी हैं होती जा रही हैं। हर शहर में इक्का-दुक्का बची तीव्रता से बंद होने के इसी राजमार्ग पर अग्रसर हैं। ज़मीनों के आसमान छूते दामों के खेल ने इस खेलगृह को ग्रहण लगा दिया है। पुराने सिनेमा हॉल के हाल को यदि किसी सिनेमा मालिक ने बाज़ारीकरण के दौर में अभी भी अपने पूर्व के बदहाल में ही क़ैद सा रखा हुआ है तो वह सरकार से नागरिक सेवा सम्मान पाने का हक़दार है!
मल्टीप्लेक्स में आनलाईन बुकिंग होने से लाईन से मुक्ति तो मिल गयी है। लेकिन बहुगुणी पुरानी टॉकीज के सामने मल्टीप्लेक्स की क्या बिसात! सोचें कि हम भारतीयों की आपसी दोस्ती व दुश्मनी दोनों लाईन में ही तो सामने आती थी। लाईन में एक ओर भाई-चारा व कौमी एकता तो दूसरी ओर खींचतान व तू-तू मैं-मैं के सत्र एक के बाद एक लगातार चलते रहते थे।
कोई हिट मूवी लगी हो तो लोग एक शो पहले टॉकीज पहुँच जाते थे। रविवार को सिनेमा देखना एवरेस्ट की चढ़ाई जैसा दुरूह कार्य होता था! कारण फ़ौजियों की छुट्टी और अनुशासित माने जाने वाले फ़ौजी अनुशासन की भी इस दिन छुट्टी कर, टिकट खिड़की को दुश्मन की चौकी मान सामूहिक चढ़ाई की सर्जीकल स्ट्राईक कर कब्ज़ा कर बैठते थे। ऐतवार को आम दर्शक उनके लिये दुश्मन सेना का सदस्य जैसा हो जाता था।
टिकट नहीं मिल पायी हो तो फिकर नाट गुरू। थोडे़ खरे-खरे के दाम पर ब्लैक में टिकट का जुगाड़ आसानी से हो जाता था। ब्लैक करने वाला दुबला-पतला बडे़-बडे़ बालों वाला अपने को अमिताभ बच्चन से कम नहीं समझने वाला जीव ही बहुसंख्य पति नामक जीवों की उनकी निजी पत्नियों या प्रेमिकाओं के सामने इज़्ज़त बचाता था!
मैनेजर व स्टाफ़ खिड़की को बंद ही रखना पसंद करते थे। दस बीस टिकट बाँटे उसके बाद फटाक से खिड़की बंद! खिड़की के अंदर के टिकटदार आदमी को देखकर ही आम आदमी वीआईपी कैसा होता है, से परिचित होता था!
टॉकीज में इधर-उधर ब्लैक टिकटर अपने जौहर दिखाते मिल जाते थे। कालाबाज़ार में इक ख़ूबी तो थी कि यह कानून व्यवस्था बनाये रखने व अप्रत्यक्ष रोज़गार सृजन में महती योगदान करता था! नहीं तो ये बेरोज़गार चोरी-चपाटी, गुंडागर्दी आदि के स्वरोज़गार में लग जाते! चार के सोलह कैसे बनाये जायें सबसे पहले इन्होंने ही ईजाद किया होगा!
उस समय का गेटमैन भी एक महान शख़्सियत लगता था। मेरे एक दोस्त का बाप एक टॉकीज में गेटमैन था। मैं अपने उस दोस्त को बहुत इज़्ज़त देता था! मैं क्या कक्षा का हर लड़का सोचता कि काश किसी लड़के का बाप या भाई टिकट ब्लैक करने वाला या गेटमैन हो तो कितना अच्छा हो! किसी का दूर का रिश्तेदार भी टॉकीज का मैनेजर हो तो सब उसके सामने बिछने तैयार रहते थे। मैनेजर के कमरे में प्रवेश पाया बैठा कोल्ड ड्रिंक सिप करता व्यक्ति हमारे लिये ज़िले के कलेक्टर के बराबर होता था!
आज के मल्टीप्लेक्स में तो ससुरी बिजली तक गुल नहीं होती। पहले एक शो में करंट जाने के दो शो तो होते ही होते थे। जब ऐसा होता था तो दर्शकों में क्या क़ाबिले-तारीफ़ एकता के करंट का संचार होता था! थर्ड क्लास से फ़र्स्ट क्लास तक। गालियाँ बिजली चमकने की अल्प अवधि में, पूरे हाल में समवेत स्वर में ऐसी गूँज जाती थीं कि बिजली पर यह गालियों की बिजली से तेज़ बिजली गिरने पर, वह तुरंत लौट आने में ही भलाई समझती थी। आश्नाई का सीन आया और सीटियाँ बजना शुरू या सीटी बजना शुरू हो मतलब कोई फड़कता सीन आने वाला है। ये सब मल्टीपलेक्स का राहू लील गया है! मल्टीप्लेक्स ने हमारे सिनेमाई राष्ट्रीय चरित्र को लुप्तप्रायः बना दिया है ।
सौ टंच सही है, वो मज़ा मल्टीपलेक्स में कहाँ जो कि पुराने सिनेमा-घरों में हुआ करता था! ऐसे में तो राष्ट्रीय चरित्र लुप्त होकर ही रहेगा!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
60 साल का नौजवान
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | समीक्षा तैलंगरामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…
(ब)जट : यमला पगला दीवाना
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | अमित शर्माप्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- एनजीओ का शौक़
- अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद प्रशिक्षण व शोध केन्द्र
- अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो
- अन्य क्षेत्रों के खिलाड़ियों के गोल्ड मेडल
- असहिष्णु कुत्ता
- आप और मैं एक ही नाव पर सवार हैं क्या!
- आम आदमी सेलेब्रिटी से क्यों नहीं सीखता!
- आर्दश आचार संहिता
- उदारीकरण के दौर का कुत्ता
- एक अदद नाले के अधिकार क्षेत्र का विमर्श’
- एक रेल की दशा ही सारे मानव विकास सूचकांको को दिशा देती है
- कअमेरिका से भारत को दीवाली गिफ़्ट
- कुत्ता ध्यानासन
- कुत्ता साहब
- कोरोना मीटर व अमीरी मीटर
- कोरोना से ज़्यादा घातक– घर-घर छाप डॉक्टर
- चाबी वाले खिलौने
- जनता कर्फ़्यू व श्वान समुदाय
- जियो व जीने दो व कुत्ता
- जीवी और जीवी
- जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन
- टिंडा की मक्खी
- दुख में सुखी रहने वाले!
- धैर्य की पाठशाला
- नख शिख वर्णन भ्रष्टाचार का
- नयी ’कोरोनाखड़ी’
- नये अस्पताल का नामकरण
- परोपकार में सेंध
- बेचारे ये कुत्ते घुमाने वाले
- भगवान इंसान के क्लासिक फर्मे को हाईटेक कब बनायेंगे?
- भोपाल का क्या है!
- भ्रष्टाचार व गज की तुलना
- मल्टीप्लेक्स और लुप्तप्रायः होता राष्ट्रीय चरित्र
- मार के आगे पति भी भागते हैं!
- मुर्गा रिटर्न्स
- युद्ध तुरंत बंद कीजो: श्वान समुदाय की पुतिन से अपील
- ये नौकरी देने वाला एटीएम कब आएगा!
- ये भी अंततः गौरवान्वित हुए!
- विज्ञापनर
- विदेश जाने पर कोहराम
- विवाद की जड़ दूसरी शादी है
- विश्व बैंक की रिपोर्ट व एक भिखारी से संवाद
- शर्म का शर्मसार होना!
- श्वान इंसान की पहचान
- श्वान कुनबे का लॉक-डाउन को कोटिशः धन्यवाद
- संपन्नता की असमानता
- साम्प्रदायिक सद्भाव इनसे सीखें!
- सारे पते अस्पताल होकर जाते हैं!
- साहब के कुत्ते का तनाव
- सूअर दिल इंसान से गंगाधर की एक अर्ज
- सेवानिवृत्ति व रिटायरमेंट
- हाथियों का विरोध ज्ञापन
- हैरत इंडियन
- क़िला फ़तह आज भी करते हैं लोग!
आत्मकथा
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 1 : जन्म
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 2 : बचपन
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 3 : पतित्व
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 4 : हाईस्कूल में
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 5 : दुखद प्रसंग
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 6 : चोरी और प्रायश्चित
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं