दुख में सुखी रहने वाले!
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी सुदर्शन कुमार सोनी1 Jun 2024 (अंक: 254, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
सुख में सुखी व दुख में दुखी होना तो स्वाभाविक है। परन्तु ऐसे लोग भी हैं जो कि सुख में दुखी व दुख में सुखी रहते हैं। ये दुख जीवी लोगों की जमात है। इनको एक अलग ही रस मिलता है दुखी होने में। सुख इनन्हें सुख नहीं देता उलट, दुख इनन्हें एक तरह का सुख देता है। दुख इनके कंधे पर सवार न हो तो ये न जाने कब के प्राण त्याग कर चुके होते। ‘दुख कदापि न छोडे़ हमारा दामन’ इनका ब्रह्म वाक्य है। अहा दुक्खी जीवन! दुख के बोनसाई पहाड़ इनके जीवन की संजीवनी हैं।
मेरे पड़ोस में एक महाशय रहते हैं। वे किसी न किसी दुख के दरिया में हमेशा डूबते-उतराते रहते हैं। मैं जब भी मिलता हूँ तो वे उदास थोबड़ा व नम आँखें लिए बैठे मिलते। पर साल उनके ताऊ जी नहीं रहे थे वे लम्बे समय तक उदास थोबड़ा लिए दिन काटते रहे। उदासी इनको छोड़ती नहीं और ये उदासी को नहीं छोड़ते। इन्होंने इसके बाद अपने मौसा जी के अवसान के दुख की चादर को चार माह तक ओढ़े रखा था। ये चादर लम्बी चल जाती पर फिर इनको एक दूसरी दुख की चादर मिल गई। हुआ ये कि इनकी पालतू बिल्ली सर्दी में अचानक बीमार होकर चादर ओढ़े़-ओढ़े़ ही चल बसी। इसके बाद इनके प्रिय साढ़ू भाई झाड़ू लगाते सीढ़ियों से गिर ऐसे चोटिल हुए कि स्वर्ग सिधार गए। यदि किसी साल एक न एक निकट रिश्तेदार की ग़मी न हो तो ये ज़्यादा ग़मज़दा हो जाएँ। ग़मज़दा अवस्था इनकी सुखी अवस्था है।
सरकारी नुमांईदा दुखीराम मेरे एक सहयोगी के मित्र हैं। विभागीय जाँच व इनकी दाँत काटी रोटी जैसा रिश्ता है। यदि कभी विभागीय जाँच का अवकाश काल हो तो इनके लिये यह दुर्भाग्य ही होगा। इस कमी को वे एक-दो ‘कारण बताओ’ सूचना पत्र का हार पहने दूर करते हैं। कुछ न सही निलंबित भी चाहे जब हो जाते हैं। साल में तीन बार ऋतु परिवर्तन की तरह सेवाकाल से निलंबन काल में उनका परिवर्तन होता है। पर इस सबसे उनके चेहरे पर ज़रा-सी भी शिकन नहीं आती। बस यही कहते हैं कि लो आ गया ‘दो पेटी का ख़र्चा’। ये शख़्स साल दर साल से विभागीय जाँच, निलंबन झेल रहा है। आश्चर्यजनक साल दर साल से पर यह मुटाता भी जा रहा है। ऊपर से चेहरे की लुनाई बढ़ती जा रही है।
हमारे इलाक़े में एक और ऐसे शख़्स हैं जो कि नेता जी कहलाते हैं। ये टिकट की आस में सालों से जी रहे हैं। इनको टिकट पर मिलती नहीं। पार्षद का तो इन्होंने डंका पीट दिया था लेकिन एक दूसरा अनाम-सा व्यक्ति टिकट जुगाड़ ले गया। इन्होंने मंडी ज़िला पंचायत, एमएलए एमपी सबकी टिकट के जुगाड़ के लिए बेतहाशा पापड़ बेले हैं पर कभी मिली नहीं। अब ये सारे चुनाव निर्दलीय लड़कर ज़मानत ज़ब्त करवाकर सुखपूर्वक जी रहे हैं। लेकिन मजाल है कि चेहरे पर तनाव का एक भी भाव आया हो। ज़मानत ज़ब्त होना भी एक तरह से एन्ज्वाय करते आ रहे हैं।
एक और सज्जन हैं हमारे परिचित वो इसलिए सुखी महसूस करते हैं अपने आपको कि उनके दुख के हिमालय के सामने सबके दुख के पहाड़ बोनसाई जैसे हैं। इस तुलना में वे एक तरह का सुकून व सुख का अनुभव करते हैं। वे रस लेने लगे हैं इसमें। वे कारण गिनाते हैं कौन है बताओ इस महल्ले में जिसका बेटा 15 साल की उम्र में चला गया हो। पत्नी भी उसके दो साल बाद छोड़कर चली गई। दो-दो बार बाई पास हो गई उसके बाद भी बेटा-बहू देखभाल तो दूर, घर छोड़कर चले गए अलग रहनेे। किश्त न चुकाने पर मकान के कुर्क होने की नौबत आ गई। बताओ-बताओ किसका दुख का हिमालय ऐसा विशाल होगा!
ऐसे दुखीराम के सामने यदि कोई और दुख में सुख का अनुभव करने वाला आ जाए तो दोनों में एक तरह की होड़ सी लग जाती अपने-अपने दुखों के पहाड़ को ज़्यादा ऊँचा बताने की। सच है दुख ज़्यादा बड़ा सहारा है कई लोगों के जीने का यदि यह न होता तो वे कबके स्वर्गीय हो गए होते। वैसे ही जैसे कि देश का बेरोज़गार बेरोज़गारी को जी रहा है, किसान तंगहाली को, ग़रीब ग़रीबी व अमीरी की बढ़ती खाई को, आमजन अच्छे दिन आने को, मध्यम वर्ग आयकर स्लैब बढ़ने व करों की राहत की आशा में जी रहा है।
ये आम जनता भी इसी तरह की हो गई है क्या कि भीड़, धक्का-मुक्की, हादसों, क़र्ज़ भार, प्रदूषण, भाई-भतीजावाद, पेपर लीक रिश्वतख़ोरी, दलाली, ग़रीबी आदि के दुख भरे माहौल में एक तरह का रस लेकर जी रही है। और भी कि यह सोशल मीडिया के दुखों व हादसे वाले वीडियोज में सुख का रस लेकर जीती लगती है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
60 साल का नौजवान
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | समीक्षा तैलंगरामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…
(ब)जट : यमला पगला दीवाना
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | अमित शर्माप्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- एनजीओ का शौक़
- अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद प्रशिक्षण व शोध केन्द्र
- अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो
- अन्य क्षेत्रों के खिलाड़ियों के गोल्ड मेडल
- असहिष्णु कुत्ता
- आप और मैं एक ही नाव पर सवार हैं क्या!
- आम आदमी सेलेब्रिटी से क्यों नहीं सीखता!
- आर्दश आचार संहिता
- उदारीकरण के दौर का कुत्ता
- एक अदद नाले के अधिकार क्षेत्र का विमर्श’
- एक रेल की दशा ही सारे मानव विकास सूचकांको को दिशा देती है
- कअमेरिका से भारत को दीवाली गिफ़्ट
- कुत्ता ध्यानासन
- कुत्ता साहब
- कोरोना मीटर व अमीरी मीटर
- कोरोना से ज़्यादा घातक– घर-घर छाप डॉक्टर
- चाबी वाले खिलौने
- जनता कर्फ़्यू व श्वान समुदाय
- जियो व जीने दो व कुत्ता
- जीवी और जीवी
- जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन
- टिंडा की मक्खी
- दुख में सुखी रहने वाले!
- धैर्य की पाठशाला
- नयी ’कोरोनाखड़ी’
- नये अस्पताल का नामकरण
- परोपकार में सेंध
- बेचारे ये कुत्ते घुमाने वाले
- भगवान इंसान के क्लासिक फर्मे को हाईटेक कब बनायेंगे?
- भोपाल का क्या है!
- भ्रष्टाचार व गज की तुलना
- मल्टीप्लेक्स और लुप्तप्रायः होता राष्ट्रीय चरित्र
- मार के आगे पति भी भागते हैं!
- मुर्गा रिटर्न्स
- युद्ध तुरंत बंद कीजो: श्वान समुदाय की पुतिन से अपील
- ये भी अंततः गौरवान्वित हुए!
- विज्ञापनर
- विदेश जाने पर कोहराम
- विवाद की जड़ दूसरी शादी है
- विश्व बैंक की रिपोर्ट व एक भिखारी से संवाद
- शर्म का शर्मसार होना!
- श्वान कुनबे का लॉक-डाउन को कोटिशः धन्यवाद
- संपन्नता की असमानता
- साम्प्रदायिक सद्भाव इनसे सीखें!
- सारे पते अस्पताल होकर जाते हैं!
- साहब के कुत्ते का तनाव
- सूअर दिल इंसान से गंगाधर की एक अर्ज
- सेवानिवृत्ति व रिटायरमेंट
- हाथियों का विरोध ज्ञापन
- हैरत इंडियन
- क़िला फ़तह आज भी करते हैं लोग!
आत्मकथा
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 1 : जन्म
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 2 : बचपन
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 3 : पतित्व
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 4 : हाईस्कूल में
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 5 : दुखद प्रसंग
- सत्य पर मेरे प्रयोग: महात्मा गाँधी जी की आत्म कथा के अंश - 6 : चोरी और प्रायश्चित
लघुकथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं