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पाक के आतंकवाद की टेढ़ी दुम: पालतू डॉगी की नाराज़गी

 

जब से टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर यह मुहावरा चला है कि “पाकिस्तान का आतंकवाद कुत्ते की टेढ़ी दुम जैसा है, जो बारह साल नली में डालो तो भी सीधा नहीं होता”,  मेरे पालतू डॉगी ‘डोडो’ का आत्मसम्मान आहत हो गया है। उसने न सिर्फ़ खाना छोड़ दिया, बल्कि मुझे देखकर पूँछ हिलाना और नज़र मिलाना भी बंद कर दिया है। 

डोडो का तर्क है—“हमने वफ़ादारी को जीवन-दर्शन बनाया और आप हमें उस मुल्क की सोच से जोड़ रहे हैं जो हर दिन आतंकियों को भेजता है और फिर झूठ की प्रेस कॉन्फ़्रेंस करता है।” उसकी आँखों में ग़ुस्सा और चोटिल आत्मसम्मान साफ़ दिखता है। सच मानिए, उसकी इस नाराज़गी ने मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया। 

कुत्ते जान दे सकते हैं लेकिन गद्दारी नहीं करते, और पाकिस्तान . . .? वह आतंकवाद को पालता-पोसता है, फिर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कहता है कि “हम सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं।” सवाल उठता है कि जब आस्तीन में आतंक के साँप पाल रहे थे, तब ज़मीर किसने निगल लिया था? 

हमारे देश में जहाँ कुत्ते घर की रखवाली करते हैं, वहाँ पाकिस्तान में आतंकी राष्ट्र की नीति और सेना की रणनीति बन गए हैं। उनके जनाज़ों में बड़े अफ़सर शामिल होते हैं, उन्हें ‘शहीद’ कहा जाता है। ऐसे में डोडो की नाराज़गी वाजिब है—एक सजग चेतना की प्रतीक। 

उसका मौन प्रश्न है—“क्या वफ़ादारी की क़ीमत इतनी गिर गई कि आतंक परस्त मुल्क के बराबर रख दिया?” अब मैं भी सोचता हूँ कि हमें कहना चाहिए था—“पाकिस्तान की सोच वह बारूद लिपटी रेखा है जो न सुधरती है, न रुकती है।” 

डोडो कहता है, “हम भौंकते हैं तो देश-समाज के लिए, वो बम फेंकते हैं रिहायशी इलाक़ों में।” पाकिस्तान संघर्षविराम की भीख माँगता है, फिर उसी दिन सीज़फायर तोड़ देता है। यही अंतर है वफ़ादारी और आतंक में। 

  • डोडो की राय में अब हर टेढ़ी चीज़ को कुत्ते की दुम कहना बंद होना चाहिए। अगर पाकिस्तान की फ़ितरत टेढ़ी दुम है, तो अब उसे “डिस्लोकेट” करने का समय आ गया है। पाकिस्तान की दुम अब अंतरराष्ट्रीय दबाव, आर्थिक नकेल और ऑपरेशन सिंदूर जैसी ठोस रणनीति से ही सीधी हो सकती है। आतंक वहाँ का ‘कुटीर उद्योग’ है और झूठ उनका ‘विदेश मंत्रालय’। 

आज जब दुनिया टेक्नॉलोजी और नवाचार में निवेश कर रही है, पाकिस्तान अब भी जिहाद में निवेश कर रहा है। उनकी पसंदीदा नीति है—“झूठ बराबर तप नहीं, और साँच बराबर पाप नहीं।” 

डोडो ने दुम से जुड़ी और भी कई बातें कहीं। मसलन, “मुंबई जैसे शहरों में जगह की कमी के कारण हमारे साथी अब ऊपर-नीचे दुम हिलाते हैं।” वहीं इंसान–बिना दुम के भी–हर बड़े के सामने दुम हिलाने में पीछे नहीं रहता। जैसे अफ़सर मंत्री के सामने, मातहत बॉस के सामने। 

अब डोडो का अल्टीमेटम है—“अब ‘कुत्ते की मौत मरना’ या ‘कुत्ते की तरह लड़ना’ जैसे मुहावरे भी नहीं चलेंगे। यदि हम सारे कुत्ते एक साथ भौंकने लगें, तो ध्वनि प्रदूषण से ही मानव जाति का जीना हराम हो जाएगा—जैसे चंद आतंकवादियों ने पूरी दुनिया का सुख चैन हराम कर रखा है।” 

अंत में डोडो का आग्रह—“हम वफ़ादारों की जात को ‘आतंकिस्तान’ की हरकतों से मत जोड़िए। नहीं तो हम कुत्ते भी लोकतांत्रिक तरीक़े से एकजुट होकर विरोध में भौंकना शुरू कर देंगे।” 

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