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टिंडा की मक्खी 

टिंडा के जन्म के समय उसकी माँ को सुरक्षा व निजता की दृष्टि से इस कॉलोनी की फ़र्शी से ढकी नाली के नीचे उतरना पड़ा था। टिंडा और उसके साथ जन्म लिये पाँच अन्य भाई-बहिनों की मातृभूमि यही नाली थी। बस क़ुदरत की एक नेमत के अनुसार न तो वे रोये और न ही आँखें दो सप्ताह भर खोलीं। टिंडा की बायीं आँख से कानी मायावी लगती माँ माया मौक़ा ताड़कर बच्चों के लिये केवल खाने का इंतज़ाम करने बाहर निकलती थी। इस समय वह कालू को तैनात करके ही जाती थी। कालू दोस्ती का फ़र्ज़ बहुत अच्छे से निभाते हुये बच्चों की कुशलता से हिफ़ाज़त करता था। सभी भाई बहिन अच्छे तंदुरुस्त थे। ये मायावी माया क्या खाती पीती थी कि सड़क के बच्चे किसी खाते-पीते घर के बच्चों से ज़्यादा तंदुरुस्त लग तेज़ी से बढ़ रहे थे! 

ये पिल्ले दो सप्ताह के रहें होंगे तभी मौक़ा देखकर ये मक्खी प्रथम बार पिल्लों के ऊपर आकर मँडरायी थी। पर उसे टिंडा का भूरा मखमली कोट ऐसा भाया की उसी की होकर रह गयी। अब ये मक्खी टिंडा के आसपास ही मँडराती उसके उपर ही सवार रहती। टिंडा शुरू-शुरू में तो इस सबसे बेख़बर था कि एक मक्खी क्या बिगाड़ा उसका कर लेगी। उसने टिंडा के मखमली शरीर को ही अपना घरौंदा मान लिया था। टिंडा कई बार नाराज़ होकर इसको अपने मुँह में भर मज़ा चखाना चाहता लेकिन यह तत्क्षण टिंडा का इरादा भाँप फुर्र हो जाती। पर वह टिंडा बिना ज़्यादा देर चैन से भी नहीं रह पाती, थोड़ी ही देर में वापिस भन-भन का बाजा बजा उस पर लैंड कर जाती। ऐसे जैसे कि सूद के ब्याज पर ब्याज की मक्खी किसान की छाती पर मूँग दलने लैंड किये रहती है। ये श्वान कुनबा अब तक दो आवासों के बीच की रिक्त जगह में होशियारी से डेरा डाल चुका था।

माया का परिवार अब बड़ा हो गया था। 06 बच्चे तो अभी के और पहले के नौ में से बचे तीन। कालू मित्र को मिलाकर कुल ग्यारह लोगों का। दोनों पीढ़ियों के बच्चों के बाप तो अपना काम करके सही अर्थों में कुत्तापन दिखाकर हमेशा की तरह नदारद हो चुके थे। कालू सोचता कि ये साले कैसे बाप हैं बापपन का इतना अच्छा व सुनहरा मौक़ा मिला पर नालायक़ ऐन मौक़े पर कन्नी काट गये। कालू सोचता कुत्तापन में कमीनापन का तड़का मिलने से ऐसा हुआ! इसलिये मदरस् डे की महत्ता फ़ादरस् डे की तुलना में ज़्यादा है!

एक आवासधारी अधिक अच्छे आवास की चाहत में फ़र्लांग भर दूर के आवास में शिफ़्ट हो गया। दो दिन तो इस श्वान कुनबे ने जैसे-तैसे गुज़र बसर की। हाँ, इन दोनों दिनों में भी कालू बक़ायदा इस नये आवास के बाहर घूमकर रेकी सी कर सारी रिपोर्ट माया को कुत्तई संकेतों में देता रहा। सलाह-मश्विरे के बाद तीसरे दिन पूरे ग्यारह सदस्यों के श्वान कुनबे ने इस नये घर के बाहर डेरा डालने के लिए मार्च किया। आगे-आगे कालू; पीछे मायावी लगती माया और उसके पीछे पूरे नौ बच्चे चल रहे थे। लेकिन इनको कोई मज़दूरों की तरह भूखे-प्यासे हज़ार किलोमीटर नहीं केवल 1000 मीटर भी नहीं जाना था। अब ये सबके सब इस नये घर के सामने आकर जम गये। हाँ एक दो बार ज़रूर कालू पुराने मकान की ओर भी रुख़ कर आया था। एक दिन तो चुपचाप रात भी वहाँ बिता आया था। शायद कुछ मीट-शीट हड्डी-बड्डी जैसी बड्डी चीज़ का अवसर रहा होगा। कुत्ता हो या आदमी हमेशा बड्डी चीज़ों की ही ताक में रहता है! 

टिंडा की मक्खी टिंडा से जुदा होती क्या?... उसके साथ यहाँ तक चली आयी थी। हाँ, ये मरजली तो यहाँ आकर और ज़्यादा तंदुरुस्त हो गयी थी। अब तो यह टिंडा के कानों के भीतरी भू-भाग का भी जायज़ा लेने का प्रयत्न करती। टिंडा उसकी इस हरकत पर क्रोधित हो तेज़ी से मुँह खोलकर उसकी ओर लपकता लेकिन वह हवा में मुँह मारने के अलावा कुछ नहीं कर पाता था। अरे! मक्खियाँ किसी के नियंत्रण में आती हैं क्या? युवाओं की बेरोज़गारी की, किसान की आपदा की, मज़दूर की विपदा-रूपी मक्खी उसके नियंत्रण में है क्या? पर, एक बात तो थी कि टिंडा भी अब इस मक्खी से मन ही मन चाहत सी रखने लगा था; वो जब पेट पूजा के लिये यहाँ-वहाँ फुर्र हो बहुत समय तक नहीं आती, तो टिंडा को उसकी याद सताती। क्या मजबूरी में ग़रीबी की मक्खी से भी ग़रीब को चाहत सी हो जाती है; तभी तो ये क़ब्र में जाने तक उड़ती नहीं। 

फ़िलहाल टिंडा व मक्खी पूर्ण सामंजस्य के साथ रह रहे हैं; भले ही पड़ोसी-पड़ोसी न रह पा रहे हों। कोरोना काल में भी उन्होंने डिस्टेसिंग को भाव नहीं दिया है। ये मक्खी भी लगता है कि अपनी औसत उम्र से ज़्यादा जी रही है। दोस्ती के विटामिन का प्रभाव है यह! स्नेह व प्रेम का रिश्ता हो तो ऐसा, न कि उस बेटे जैसा जो कि कोरोना से मृत पिता की देह को दूर से जलता देखता रहा और तहसीलदार को अंतिम क्रियाकर्म करना पड़ा! न ही उन बच्चों जैसा जो कि माँ की मृत देह के पास संक्रमण के डर से अंतिम समय का फ़र्ज़ पूरा करने भी तैयार नहीं हुए। परंतु जब पायल व अंगूठी की याद आयी तो नजदीक आ उन्हे भरपूर स्पर्श कर उतार ली। प्रेम उस भाई जैसा उथला भी न हो जिसने अपने सगे भाई को कोरोना संक्रमित होने पर घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया। या उस रिश्तेदार जैसा भी जिसने उसीको देखने आयी रिश्तेदार को चार दिन बाद ही, बाहर का रिश्ता भरे लॉक डाउन में दिखा दिया। 

टिंडा को तो ज़्यादा फ़र्क़ इस मक्खी से नहीं पड़ता पर ऐसी ही ग़रीबी, भुखमरी, शोषण व अन्याय, अवसरों व रोज़गार के अभाव की बीमारी, गंदगी व मिलावट, भाई-भतीजवाद, जातिवाद व क्षेत्रवाद की मक्खियाँ इस देश के अमूमन हर आम आदमी के साथ पैदाइशी फेविकोल के जोड़ से भी ज़्यादा मज़बूती से चिपकी रहती हैं। और तभी स्थायी रूप से उड़ती हैं जब उसके इस दुनिया से प्राण पखेरू उड़ जाते हैं! 

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