ज्वालामुखी
काव्य साहित्य | कविता आशीष कुमार1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
हिचकोले खाने लगी अंदर धरती
ऊर्जा तरंगें इस क़द्र हैं भड़कीं
बाहर आने की यह बेताबी
दिखा रहा अशांत उग्र ज्वालामुखी
चीरती दहाड़ती हुई भूपर्पटी को
दौड़ पड़ी आग की लपटें भूखी
लावा उगलते विकराल मुख से
बाहर आ गईं बना ज्वालामुखी
जिधर को बढ़तीं सब स्वाहा करतीं
खेत खलिहान जंगल ले फूँकीं
धधक रही सीने में जिसके
वो ज्वाला लपटें कहाँ हैं चूकीं
घनघोर बादल हैं पर धुएँ के
बारिश होती पर अंगारों की
कड़कती बिजली सी चिंगारी संग
तांडव करता है ज्वालामुखी
लावा मैग्मा धुआँ और राख
पहचान इसकी है अनोखी
तपिश बढ़ाई इसने चहुँओर
कंठ सूखा ताल तलैया सूखी
कभी-कभी सदियों तक पूरी
कुम्भकर्ण की नींद है सोता
कभी एकाएक जागृत होकर
जनजीवन दुखी है कर देता
जब कलेजे को ठंडक पड़ती
जन्म लेती क्रेटर झील सी बेटी
लावा मैदान आग्नेय चट्टान
ख़ासियत बताते हैं इसकी
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