मामला गरम है
काव्य साहित्य | कविता आशीष कुमार1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
लोकतंत्र का पर्व पावन परम है
मतदान हमारा पुनीत करम है
बज चुका है चुनावी बिगुल
पक्ष-विपक्ष सबका मामला गरम है
कोई कट्टरपंथी चरम है
कोई दिखाता ख़ुद को नरम है
टर्र टरा रहे चुनावी मेंढक
हर जगह मामला गरम है
किसी का सब कुछ सिर्फ़ धरम है
कोई बूझे सिर्फ़ जात-पाँत का मरम है
सब कुछ देख रहा बूढ़ा बरगद
जिसकी छाया में मामला गरम है
किसी नज़र में परिवारवाद अधरम है
किसी को व्यक्तिवाद पर आती शरम है
विकास के रास्ते हैं सभी के पास
पर पहुँचने की बात पर मामला गरम है
फैलाते जनता में भरम हैं
चुनावी वादे सारे बेशरम हैं
मैं सही सब ग़लत के चक्कर में
सारे झूठों का मामला गरम है
गिनती नहीं कितनी तरह का कुकरम है
किसी की जेब ढीली किसी की जेब गरम है
सुबह होने का अब इंतज़ार किसे है
आधी रात को ही यहाँ मामला गरम है
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