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मेरा कौन है मैं किसे अपना कहूँ

हक़ीक़त जानकर दरअसल हैरान हूँ
नींद में तो नहीं कि इसे सपना कहूँ
हर जगह तो अकेला ही पड़ जाता हूँ
मेरा कौन है मैं किसे अपना कहूँ
 
यूँ तो बोल देते हैं सब साथ हूँ तेरे
क्या इसे अपने नाम की माला जपना कहूँ
वक़्त पड़ने पर तो छोड़ दिया अकेला सबने
तो फिर किस शय पर उन्हें अपना कहूँ
 
बच कर निकलते हैं लोग मुझसे
तो इन झूठे रिश्तों को कैसे ठप्प ना कहूँ
बातें तो होती हैं उनकी बस दिल बहलाने के लिए
तो मैं इन बातों को कैसे गप्प ना कहूँ
 
हर एक ने दिलासा दिया है बस मुझे
क्या उन्हें ख़ुद्दारी की आग में तपना कहूँ
या फिर मैं समझूँ इसे सच्ची सहानुभूति
क्या इन्हें सच मान लूँ और उन्हें अपना कहूँ
 
वह मेरे नहीं मगर मैं उनका रहा हूँ
ख़ुद को उनके लिए कैसे सपना कहूँ
हर फ़र्ज़ निभाया है सबके लिए शिद्दत से मैंने
मगर मेरा कौन है मैं किसे अपना कहूँ

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