ज़िन्दगी एक पतंग
काव्य साहित्य | कविता आशीष कुमार15 May 2022 (अंक: 205, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
उड़ती पतंग जैसी थी ज़िन्दगी
सबकी जलन की शिकार हो गई
जैसे ही बना मैं कटी पतंग
मुझे लूटने के लिए मार हो गई
सबकी इच्छा पूरी की मैंने
मेरी इच्छा बेकार हो गई
कहने को तो आसमान की ऊँचाइयाँ मापीं मैंने
चलो मेरी ना सही सबकी इच्छा साकार हो गई
ऐसा भी ना था कि पाँव ज़मीन पर ना थे मेरे
किसी ना किसी से मेरी डोर अंगीकार हो गई
मगर ज़माने भर की बुरी नज़र थी मुझ पर
मुझे काटने के लिए हर पतंग तैयार हो गई
पंख लगाकर उड़ना था मुझे
मेरी यह इच्छा स्वीकार हो गई
जब तक साँस चली उड़ाया गया
फिर यह ज़िन्दगी मिट्टी में मिलने के लिए लाचार हो गई
सबको ख़ुशियाँ देता रहा मैं
मेरी ख़ुशियाँ सब पर उधार हो गई
हर रंग देखा पल भर की ज़िन्दगी में
जाते-जाते सबकी यादें बेशुमार हो गई
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