मस्ती का दिन
कथा साहित्य | कहानी डॉ. आरती स्मित15 Nov 2020
रविवार को पापा दफ़्तर नहीं जाते। मुझे पकड़कर देर तक सोए रहते हैं। हम साथ-साथ खेलते हैं। खाते हैं। चित्र बनाते हैं।
पापा मुझे पार्क ले जाते हैं। वहाँ बहुत सारे पेड़ हैं और आस-पास ढेर सारी गिलहरियाँ। मैं उनके पीछे-पीछे भागती हूँ। पापा उसे दाना देते हैं तो वे झट से हमारे पास आ जाती हैं।
मुझे रंग-बिरंगी तितलियाँ देखना भी बहुत पसंद हैं। फूल के पौधों पर वे बैठी रहती हैं । मैं हाथ बढ़ाती हूँ तो झट उड़ जाती हैं।
कभी पापा मछली घर ले जाते हैं तो कभी गुड़िया घर। कभी चिड़िया घर तो कभी बड़े से खुले मैदान में। स्कूटी में मैं पापा को ज़ोर से पकड़कर बैठती हूँ , मम्मी मुझे . . .
तालाब में बड़ी मछलियाँ होती हैं। जब मैं आटे की गोली फेंकती हूँ तो वह लपक कर मुँह में ले लेती है। वह सोया बड़ी भी खाती है। फिर गुडुप से पानी के भीतर!
लाल-पीली, सुनहरी–नीली छोटी मछलियाँ शीशे के बंद घरों में रहती हैं।
चिड़ियाघर में तो कितने सारे जानवर और रंग-बिरंगी चिड़िया भी! मगर वे पिंजड़े में बंद मुझे अच्छे नहीं लगते।
मुझे गुड़िया घर जाना अच्छा लगता है। सजी-धजी गुड़ियाँ! सुंदर-सुंदर ! मैं उनसे बातें करती हूँ तो मम्मी-पापा हँसते हैं।
बड़े वाले पार्क में बड़ा-सा मैदान है। मैं वहाँ खूब दौड़ लगाती हूँ। बहुत मज़ा आता है।
मुझे इंतज़ार रहता है रविवार का . . .
आज रविवार है! मेरी मस्ती का दिन!! हुर्रेऽऽऽऽ!!
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