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मल्टीप्लेक्स और लुप्तप्रायः होता राष्ट्रीय चरित्र

वो समय दूर नहीं जबकि पुराने छविगृहों की बस जेहन में एक छवि ही रह जायेगी। एक-एक करके सारी टॉकीजें बंद हो गयी हैं होती जा रही हैं। हर शहर में इक्का-दुक्का बची तीव्रता से बंद होने के इसी राजमार्ग पर अग्रसर हैं। ज़मीनों के आसमान छूते दामों के खेल ने इस खेलगृह को ग्रहण लगा दिया है। पुराने सिनेमा हॉल के हाल को यदि किसी सिनेमा मालिक ने बाज़ारीकरण के दौर में अभी भी अपने पूर्व के बदहाल में ही क़ैद सा रखा हुआ है तो वह सरकार से नागरिक सेवा सम्मान पाने का हक़दार है! 

मल्टीप्लेक्स में आनलाईन बुकिंग होने से लाईन से मुक्ति तो मिल गयी है। लेकिन बहुगुणी पुरानी टॉकीज के सामने मल्टीप्लेक्स की क्या बिसात! सोचें कि हम भारतीयों की आपसी दोस्ती व दुश्मनी दोनों लाईन में ही तो सामने आती थी। लाईन में एक ओर भाई-चारा व कौमी एकता तो दूसरी ओर खींचतान व तू-तू मैं-मैं के सत्र एक के बाद एक लगातार चलते रहते थे।

कोई हिट मूवी लगी हो तो लोग एक शो पहले टॉकीज पहुँच जाते थे। रविवार को सिनेमा देखना एवरेस्ट की चढ़ाई जैसा दुरूह कार्य होता था! कारण फ़ौजियों की छुट्टी और अनुशासित माने जाने वाले फ़ौजी अनुशासन की भी इस दिन छुट्टी कर, टिकट खिड़की को दुश्मन की चौकी मान सामूहिक चढ़ाई की सर्जीकल स्ट्राईक कर कब्ज़ा कर बैठते थे। ऐतवार को आम दर्शक उनके लिये दुश्मन सेना का सदस्य जैसा हो जाता था।

टिकट नहीं मिल पायी हो तो फिकर नाट गुरू। थोडे़ खरे-खरे के दाम पर ब्लैक में टिकट का जुगाड़ आसानी से हो जाता था। ब्लैक करने वाला दुबला-पतला बडे़-बडे़ बालों वाला अपने को अमिताभ बच्चन से कम नहीं समझने वाला जीव ही बहुसंख्य पति नामक जीवों की उनकी निजी पत्नियों या प्रेमिकाओं के सामने इज़्ज़त बचाता था!

मैनेजर व स्टाफ़ खिड़की को बंद ही रखना पसंद करते थे। दस बीस टिकट बाँटे उसके बाद फटाक से खिड़की बंद! खिड़की के अंदर के टिकटदार आदमी को देखकर ही आम आदमी वीआईपी कैसा होता है, से परिचित होता था!

टॉकीज में इधर-उधर ब्लैक टिकटर अपने जौहर दिखाते मिल जाते थे। कालाबाज़ार में इक ख़ूबी तो थी कि यह कानून व्यवस्था बनाये रखने व अप्रत्यक्ष रोज़गार सृजन में महती योगदान करता था! नहीं तो ये बेरोज़गार चोरी-चपाटी, गुंडागर्दी आदि के स्वरोज़गार में लग जाते! चार के सोलह कैसे बनाये जायें सबसे पहले इन्होंने ही ईजाद किया होगा!

उस समय का गेटमैन भी एक महान शख़्सियत लगता था। मेरे एक दोस्त का बाप एक टॉकीज में गेटमैन था। मैं अपने उस दोस्त को बहुत इज़्ज़त देता था! मैं क्या कक्षा का हर लड़का सोचता कि काश किसी लड़के का बाप या भाई टिकट ब्लैक करने वाला या गेटमैन हो तो कितना अच्छा हो! किसी का दूर का रिश्तेदार भी टॉकीज का मैनेजर हो तो सब उसके सामने बिछने तैयार रहते थे। मैनेजर के कमरे में प्रवेश पाया बैठा कोल्ड ड्रिंक सिप करता व्यक्ति हमारे लिये ज़िले के कलेक्टर के बराबर होता था!

आज के मल्टीप्लेक्स में तो ससुरी बिजली तक गुल नहीं होती। पहले एक शो में करंट जाने के दो शो तो होते ही होते थे। जब ऐसा होता था तो दर्शकों में क्या क़ाबिले-तारीफ़ एकता के करंट का संचार होता था! थर्ड क्लास से फ़र्स्ट क्लास तक। गालियाँ बिजली चमकने की अल्प अवधि में, पूरे हाल में समवेत स्वर में ऐसी गूँज जाती थीं कि बिजली पर यह गालियों की बिजली से तेज़ बिजली गिरने पर, वह तुरंत लौट आने में ही भलाई समझती थी। आश्नाई का सीन आया और सीटियाँ बजना शुरू या सीटी बजना शुरू हो मतलब कोई फड़कता सीन आने वाला है। ये सब मल्टीपलेक्स का राहू लील गया है! मल्टीप्लेक्स ने हमारे सिनेमाई राष्ट्रीय चरित्र को लुप्तप्रायः बना दिया है ।

सौ टंच सही है, वो मज़ा मल्टीपलेक्स में कहाँ जो कि पुराने सिनेमा-घरों में हुआ करता था! ऐसे में तो राष्ट्रीय चरित्र लुप्त होकर ही रहेगा!

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