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ISSN 2292-9754

पूर्व समीक्षित
वर्ष: 21, अंक 278, जून प्रथम अंक, 2025

संपादकीय

निर्पक्ष और निरपेक्ष को समझने की जिज्ञासा
सुमन कुमार घई

  प्रिय मित्रो, समय-समय पर मेरे समक्ष एक वैचारिक दुविधा खड़ी हो जाती है। जानता हूँ कि एक सम्पादक को अपने राजनैतिक रुझान, धार्मिक आस्था और सामाजिक प्रभावों से विलग होकर रचनाओं को परखना और प्रकाशित करना चाहिए। यह समझना तो सही है परन्तु क्या जिन परिस्थितियों को हम भोग रहे होते हैं, उन्हें नकारा जा सकता है? उस समय हमारे कर्म का वरीयता क्रम क्या होना चाहिए? संभवतः मुझे निर्पक्ष और निरपेक्ष के अन्तर को समझना होगा। परन्तु . . . पिछले दिनों भारत और पाकिस्तान युद्ध की स्थिति में थे। भारत के सीमावर्ती प्रांतों के सीमांचल वासियों ने इस युद्ध को भोगा। यद्यपि भारतीय सेना ने...

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साहित्य कुञ्ज के इस अंक में

कहानियाँ

एक था जॉन स्मिथ
|

  महेश जब ‘मोर्ग’ (शव गृह)…

कलापी
|

  घनी धुँध और शाम का समय मौसम को और…

कौन ठगवा नगरिया लुटल बा
|

  आजकल ठगी करना आसान नहीं है। जब से…

खट्टे मीठे रिश्ते 
|

  लवली अपनी नवनिर्मित कोठी के लॉन में…

पाँच लघु कथाएँ
|

 (पर्यावरणीय नैतिकता और आपदाओं पर आधारित) …

बिचौलिया
|

  बिचौलिए ने गंभीर होते हुए शान्ति…

बिना शीर्षक
|

  अमित ने कक्षा में बैठे हुए संदीप…

रुख़्सार
|

  ख़ाविंद ने थानेदार की मुट्ठी गरम…

लापरवाही का ख़म्याज़ा
|

  मैं तृतीय श्रेणी अध्यापिका के पद…

विजेता 
|

  बोतल हाथ से गिरकर टूट गई, लड़खड़ाते…

सयानी सरस्वती
|

  मूल कहानी: कैटरीना ला' सेपियंट;…

सिटकिनी
|

  “देखिए,” पति से रमा अपना…

स्वयं से स्वयं तक
|

  यह पत्र पहली बार पढ़ा था तो मन ग़ुस्से…

हास्य/व्यंग्य

इश्तिहार-ए-इश्क़
|

  मशहूर शायर जनाब निदा फाजली साहब का…

बकवास करना सीखो 
|

  अगर आप ज़रा भी चर्चा में नहीं हैं…

आलेख

गीता में भक्तों का वर्णन 
|

  हम सभी किसी न किसी रूप में अपने अपने…

हमारी सहयात्रा
|

  (इक्कीस वर्षों की आत्मिक संगति पर…

समीक्षा

शुभ्रा ओझा की आख़िरी चाय
|

समीक्षित पुस्तक: आख़िरी चाय (कहानी संग्रह) विशेष: शिवना नवलेखन पुरस्कार…

संस्मरण

नाटक

कविताएँ

अच्छा! तुम ही हो! 
|

  अच्छा! तुम ही हो!  लेती रहती…

अन्धे ही तो हैं
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(रूप घनाक्षरी छन्द)    अन्धभक्त…

अपर्याप्तता 
|

  ये दो आँखें कम हैं तुम्हारी सुंदरता…

अभिमान न कर 
|

  वक़्त है तेरा तो परोपकार कर रख स्वाभिमान,…

असहजता
|

  संघर्ष है तो हारने के डर से फिर विराम…

आत्म भीति
|

  कुछ लोग संतुष्ट हैं  बस अपने…

आयु का असीम स्पंदन
|

  उम्र का हिसाब न लगा,  न माप…

उन्हें क्या कष्ट था? 
|

  उन्हें क्या कष्ट था तब पता नहीं था, …

उम्र का एहसास
|

  दिल का क्या है, उम्र से बँधा नहीं, …

उम्र का सुरभित दीप
|

  मैंने देखा है,  उस अनाम क्षण…

एक रात तुम्हारी बाँहों में
|

  संभोग क्रिया के पश्चात जब तुम निश्चिन्त…

एकतरफ़ा प्यार
|

  इतनी व्यस्त दुनिया में जहाँ भूख,…

ऐसा क्यों करते हो
|

  (मनहरण कवित्त छन्द)   अधिक अंक…

ऑपरेशन सिंदूर
|

  उजाड़ा था तुमने,  बेक़ुसूर माँगों…

करूँगी बातें तुमसे
|

  तुमसे— किसी दिन ख़ाली समय में…

कुछ यादें
|

  मैंने जाना कि दो लोगों के बीच कोई…

कुरुक्षेत्र
|

  हर युग में जन्म लेता है एक कुरुक्षेत्र, …

क्षण भंगुर जीवन
|

  पल में बनती बात है, पल में बिगड़े…

चिंता क्यों
|

  कुछ लोगों को चिंता भारी  कविता…

जय हिंद
|

  जय हिंद, जय हिंद के नारे अब लगाते…

जी तो रहा हूँ
|

  जी तो रहा हूँ मगर ऐ ज़िंदगी तुझसे…

ठहरी कहाँ
|

  चाहती हूँ पहचान लूँ हर गति समय की …

तन्हाई 
|

  ढलने लगी शाम मैं हो गया गुमनाम …

तुम्हें देखते ही
|

  ओ मेरी प्यारी दीपा  तुम्हें…

दहलीज़
|

  दहलीज़— न द्वार है, न दीवार,…

धोबी घाट
|

  भोर की उजास जब तिरती है नदी पर, …

नए सवेरे की आग़ोश में
|

  भूत की परछाइयों से कब तक यूँ घबराओगे, …

निर्मल कुमार दे – क्षणिका – 006
|

भूल नहीं पाता वह मंज़र जब तुमसे आँखें चार…

परिभाषाएँ बदल रही हैं
|

  अर्थहीन हो गईं किताबें  जो अतीत…

प्यारे कपोत 
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  मेरे विद्यालय की कक्षा शिशु, जिसमें…

प्रेम में पूर्णिमा नहीं होती
|

  तुमने पूछा था क्या तुम मुझसे प्रेम…

मन भारी भारी सा है
|

  नगर के विराने में,  मित्रों…

मैं अब भी वही हूँ . . . 
|

  (अतुकान्त प्रेम कविता)  तुमने…

मख़मल की झुर्रियाँ
|

  मख़मल की झुर्रियाँ,  वक़्त की…

योग्यता का वनवास
|

  वो आता है वक़्त पर,  काम समय…

रात
|

  बसी है याद दिल में नींद को कहाँ आना…

वट सावित्री व्रत पर दोहे
|

  ज्येष्ठ अमावस शुभ दिवस, शुभ मुहूर्त…

वह घाव जो अब तक रिसते हैं
|

  वो जो शब्दों में ज़हर घोलता है, …

विज्ञानकु: लक्ष्य हमारा
|

  लक्ष्य हो मित्र विज्ञानकु का यश फैले…

सती अनसूया
|

वो कोई महल नहीं था— जहाँ त्रिदेव पहुँचे…

सब अधूरा 
|

  बचपन अधूरा था जवानी अधूरी है हाथों…

सर्वविद
|

  मैं वो भी सुनता हूँ  जो तुम…

सुकून की तलाश है
|

  चलते हैं डगर-डगर, शाम-सहर नगर-नगर…

स्वार्थ की सिलवटें
|

  चेहरों पर मुस्कानें हैं,  पर…

हाय रे! मानुष ख़ुद्दार
|

  हाय रे! मानुष ख़ुद्दार, तू है इस ज़माने…

हैरत होती है
|

  (रूप घनाक्षरी छन्द)   …

ज़िन्दगी
|

(चोका)   खुली किताब कभी बंद मुट्ठी…

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शायरी

कवयित्री: डॉ. मधु संधु

अच्छा लगता है

कविता: अच्छा लगता है; लेखिका: डॉ. मधु संधु; स्वर: नीरा    

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इस अंक की पुस्तकें

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कैनेडा का हिंदी साहित्य

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विशेषांक सूची

डॉ. शैलजा सक्सेना (विशेषांक संपादक)

मित्रो,  बसंत पंचमी की आप सब को अनंत शुभकामनाएँ! बसंत प्रतीक है जीवन और उल्लास का। साहित्य का बसंत उसके लेखकों की रचनात्मकता है। आज के दिन लेखक माँ सरस्वती से प्रार्थना कर अपने लिए शब्द, भाव, विचार, सद्बुद्धि, ज्ञान और संवेदनशीलता माँगता है, हम भी यही प्रार्थना करते हैं कि मानव मात्र में जीने की.. आगे पढ़ें

(विशेषांक सह-संपादक)

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