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ISSN 2292-9754

पूर्व समीक्षित
वर्ष: 21, अंक 265, नवम्बर द्वितीय अंक, 2024

संपादकीय

आंचलिक सिनेमा में जीवित लोक साहित्य, संस्कृति और भाषा
सुमन कुमार घई

  प्रिय मित्रो, दीपावली बीत गई! यहाँ अब क्रिसमस की तैयारियाँ आरम्भ हो रही हैं। बाहर पतझड़ अपने यौवन की ओर बढ़ रहा है। बस कुछ ही सप्ताह की बात है कि शरद ऋतु द्वार खटखटाने लगेगी। जब से तापमान गिरने लगा है, प्रायः मैं अपने आप को टीवी के सामने बैठा रिमोट से चैनल बदलते हुए पा रहा हूँ। इसी प्रक्रिया में एक दिन ‘ब्रह्मास्त्रा’ (मूवी में ऐसा ही कहा जा रहा था) पर जाकर अटक गया। सोचा इसे देखूँ या न देखूँ? समय कितना लगेगा, कितना बरबाद होगा। मैं इस बात पर सदा से गर्व करता रहा हूँ कि मैं किसी भी प्रकार और किसी भी...

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साहित्य कुञ्ज के इस अंक में

कहानियाँ

किट्टी पार्टी
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“सुनो, तुम आज खाना जल्दी खा लेना,…

जब माँ बनी बेटी
|

  अजय को याद है, वो शाम कितनी अजीब…

धर्मपु़त्र
|

(नीहारिकाः मार्च 1963) प्रेषक: अमिताभ वर्मा…

प्राइवेट बीवी
|

  चार दिनों से मैं भारत दूर संचार निगम…

सुदर्शना
|

  यह एक छोटा-सा गाँव है नरहरपुर। कहने…

क़ब्ज़े पर
|

  अपनी दूसरी शादी के कुछ समय बाद पापा…

ख़ज़ाना
|

सुमावती की नज़र जैसे ही उस ख़ूबसूरत नक़्क़ाशीदार…

हास्य/व्यंग्य

आलेख

छठ पर्व मनाएँ मगर सावधानी से
|

  छठ पर्व आ गया है और उसके साथ तैयारी…

भैया दूज की प्रासंगिकता
|

  भैया दूज भारतीय संस्कृति में भाई-बहन…

रविदास जी का साहित्य
|

  सामाजिक एवं धार्मिक विषमताओं बाह्याडम्बरों…

हाइकु का विकास और सौंदर्य
|

  हाइकु लम्बी कविता नहीं है, यह सत्रह…

संस्मरण

कविताएँ

अंधे की लाठी 
|

  अंधे को लाठी,  चाहिए थी, …

आशाओं के रंग
|

1. बने विजेता वह सदा, ऐसा मुझे यक़ीन। …

इतिहास में झाँकने पर
|

  यादों की भी एक उम्र होती है बिसरने…

कविता का आज का दौर 
|

  अभी जो दौर चल रहा है वो यूँ ही गुज़र…

झूठ की ओढ़नी 
|

  झूठ ने,  फिर एक झूठ,  ओढ़…

ठंड हुई पुरज़ोर
|

  (बाल दिवस विशेष)   लगे ठिठुरने…

ठुकराया गया प्रेम
|

  मेरा नाम इश्क़ है अपने मुझे देखा होगा…

थोड़ा थोड़ा
|

  भोंपू बजाते हुए ट्रेन रफ़्तार पकड़…

दीपावली
|

फिर आई अपनी दीपावली।  धरा फिर रोशन…

दूर, बहुत दूर
|

  तुम्हारे जाने के बाद मन में विचार…

पंछी
|

  (बाल दिवस विशेष)   छोटे-छोटे…

पत्थर का
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   मुझमें अब कोई संवेदना नहीं…

परिवार
|

  पिता करते देखभाल, माँ करती प्यार। …

परिवार
|

  नाज़ुक धागों में बँधे रिश्ते आत्मीयता…

पहचान
|

  कुछ ढूँढ़ रही हूँ,  रोज़ गुज़रते…

पीड़ा क्या कूकती भी है?
|

  इस इलाक़े में कोई जानता नहीं, …

भगवती वंदना 
|

  माँ भगवती सदैव आपकी शरण रहूँ …

मेरा बचपन
|

  मैंने देखा एक दिन सपना।  वापस…

मेरा विज़न—सिर्फ़ तुम
|

  मैं तुम्हें ल्फ़्ज़ों में समेट नहीं…

मौन का संगीत 
|

  हर कवि के पास  कोई सूक्ष्म रूप…

यादों का भँवर
|

1. अधूरे वादों का, अँधेरी रातों का, दिल…

ये वन
|

  मध्य प्रदेश के पर्यटन के दौरान भोपाल…

योद्धा 
|

  ख़ूब रोए हो तुम आँखें बता रही हैं…

लक्ष्य पूरा करना है
|

  सभी शास्त्र कहते हैं मानव तनिक निहारो…

श्रेष्ठ होली
|

  रंग, अबीर और ख़ुशियों का त्योहार, …

समय सिंधु
|

  दीमक लगे गुलाब (काव्य संग्रह) …

स्पर्धा के दिन
|

स्पर्धा के दिन।  बहुत नुकीले थे। …

हारा-थका किसान
|

  बजते घुँघरू बैल के, मानो गाये गीत। …

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शायरी

कवयित्री: डॉ. मधु संधु

अच्छा लगता है

कविता: अच्छा लगता है; लेखिका: डॉ. मधु संधु; स्वर: नीरा    

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इस अंक के लेखक

विशेषांक

कैनेडा का हिंदी साहित्य

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डॉ. शैलजा सक्सेना (विशेषांक संपादक)

मित्रो,  बसंत पंचमी की आप सब को अनंत शुभकामनाएँ! बसंत प्रतीक है जीवन और उल्लास का। साहित्य का बसंत उसके लेखकों की रचनात्मकता है। आज के दिन लेखक माँ सरस्वती से प्रार्थना कर अपने लिए शब्द, भाव, विचार, सद्बुद्धि, ज्ञान और संवेदनशीलता माँगता है, हम भी यही प्रार्थना करते हैं कि मानव मात्र में जीने की.. आगे पढ़ें

(विशेषांक सह-संपादक)

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