अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आसमानी चम्मचों की कहानी है

 

आसमानी चम्मचों की कहानी है, 
बाक़ायदा तुमको ही सुनानी है। 
 
बैठ के जब कहीं वह रोता है, 
बन ही जाती वहाँ फ़ज़ा सुहानी है। 
 
मेरे दरमियान मैं अकेला है, 
यह नगर बिन राजा बिन रानी है। 
 
जीवन की फ़सल ख़राब हो गई, 
क्या बिगड़ी और क्या बनानी है। 
 
वहाँ की ज़मीन ऊर्जावान हुई, 
और सारा जहां ख़ुदा की बानी है। 
 
मैं कहता है मैं की कहानी भी, 
अव्यक्त को मेरी तर्जुमानी है। 
 
जन्नत के सभी क़सीदे कसें, 
यहाँ रोज़ी रोटी की कहानी है। 
 
मर कर अगर स्वर्ग मिलेगा, 
बिना देह के बस मुँह ज़ुबानी है। 
 
तारे भी वसु हैं दोस्त मेरे, 
सोच तेरी शख़्सियत दक़ीक़ बयानी है। 
 
वह केवल कपड़े रँगवाता है, 
पेट की बात तूने ख़ूब पहचानी है। 
 
बोल कि ख़ामोश है ज़माना चिल्ला रहा, 
तेरी चुप्पी यहाँ छुपानी है। 
 
छोड़ दिया भीड़ में रब मेरे, 
और वह कहता जग रूहानी है। 
 
फ़ैसले सभी पड़ें हैं बाक़ी अभी, 
तुझे शिकायत अभी सुनानी है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

1984 का पंजाब
|

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के साये को छत से उतरते…

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

नज़्म

कविता

सजल

ग़ज़ल

कहानी

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सांस्कृतिक कथा

चिन्तन

ललित निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं