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सम बुद्धि

 

गली के सारे लोग बदबू से परेशान थे। हफ़्ते पहले कोई चोर नाले के ऊपर लगे लोहे के जंगले साफ़ कर गया। प्रथम लोगों ने वार्ड के हारे हुए प्रत्याशी के दरवाज़े पर दस्तक दी। जीता हुआ सदस्य ढूँढ़ना उन सबके बस की बात ना थी। वह अब अगली बार ही उन्हें दर्शन दे पाएगा और कुछ वादे ऐसे कर दिए थे चुनाव की ‘फलोह (flow)’ में जो उसकी समझ से भी बाहर थे। वह लोगों को क्या समझाता? अब उनका सामना कैसे करता? जब भी उसके घर जाओ यही जवाब मिलता—‘वह काम से कहीं गए हैं’। 

चुनांचे हारे हुए प्रत्याशी का घर ही उनकी सीमा में आता था। कोई पॉलिटिकल ‘कनेक्सन’ भी थे उसके। वर्मा जी का यही कहना था। 

“देखिए, आप आए। आपका स्वागत है पर मैं इस मामले में कुछ नहीं कर सकता। मेरी सुनेगा कौन? आप तक ने तो सुनी नहीं,” उसके कटाक्ष को वहाँ मौजूद सबने समझ लिया। पर बदबू से सबसे ज़्यादा दुखी वर्मा जी थे। उनके घर के बाहर भी नाले के ऊपर से जंगला ग़ायब था। उनका दोबारा ज़ोर डालना काम कर गया। 

“ठीक है। जब आप इतना ज़ोर दे रहे हैं। ऊपर बात करके देखता लेता हूँ,” आश्वासन मिलते ही वह समूह चला गया। 

उनके जाते ही हारे हुए प्रत्याक्षी ने फोन पर विधायक को सारी बात कह दी। काम किसी प्रकार होने ना पाए। आश्वासन लिया। आख़िर दूसरी पार्टी का व्यक्ति इन लोगों ने जितवाया था। 

एक और हफ़्ता बीत गया। वर्मा जी अन्य पड़ोसी से बतियाते हुए कह रहे थे, “केवल राम ने ऊपर बात की थी। फिर आश्वासन दिया है; क्या कोई और द्वार खटखटाएँ?” 

पड़ोसी पहले ही हतभाग्य था। उसे अपना बिजली का बिल स्मरण हो उठा। जो ग़लत रीडिंग के कारण ज़्यादा आया था। जिसे ठीक कराने पर उसे अपनी सारी भूली पुश्तें याद आ गईं थीं। 

“छोड़ो वर्मा जी, सह लो। बदबू के प्रति उपेक्षा भाव रखो। सम बुद्धि ही सुख का पर्याय है,” गीता के सार की उच्च विवेचना प्रस्तुत की। 

समय बीतता गया। छोटी गलियाँ थी। उस पर नाले का जंगला ग़ायब। गली और छोटी हो गई। आए दिन दुर्घटना होती रहती। प्रकाश की गाड़ी खुले नाले में फँस गई। जो टायर फँसा हुआ था बड़ी मुश्किल से बाहर निकाला। परसों मोइन का मित्र उससे मिलने आया था। रात हो गई थी अनजाने में उसका पाँव खुले नाले में पड़ गया। काफ़ी चोटें आईं। 

नगर परिषद के दफ़्तर पर वर्मा जी अपील कर आए। लिखित में शिकायत भी दर्ज करवाई। पर सब व्यर्थ। लिपिक से लड़ भी पड़े। वह वर्मा जी को नगर परिषद कार्यालय के मुख्य गेट पर ले गया और बाहर बिल्कुल पास ही संकेत करते हुए कहा, “देखिए सामने नाले से जंगला ग़ायब है। लगभग छह महीने हो गए हैं। अब हमने सब्र किया हुआ है। आप क्यों नहीं करते।” 

वर्मा जी आश्चर्य से लिपिक का मुख ताकने लगे। 

वर्मा जी के झुके कंधे और म्लान मुख को देखकर पड़ोसी ने चिढ़ाते हुए पूछा, “काम बन गया क्या?” 

वह आँख नहीं मिला पा रहे थे। 

मायूसी से उत्तर दिया, “तुम्हारी बात ठीक थी। सम बुद्धि रखना ही ठीक होगा। और . . . सब्र भी रखना—किसी ‘ज़िम्मेदार’ महानुभाव ने कहा है,” घर का मुख्य प्रवेश द्वार बंद करते हुए। 

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